Jul
27
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒माता-पिताको
कन्याके घरका अन्न खाना चाहिये या नहीं ?
उत्तर‒माता-पिताने कन्याका
दान कर दिया तो वह उस घरकी मालकिन बन गयी, अब माता-पिताको उसके घरका अन्न लेनेका
अधिकार नहीं है । दान की हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता । हमने एक कथा सुनी है
। बरसानेका एक चमार सुबह किसी कामके लिये नन्दगाँव गया । वहीं दोपहर हो गयी । कुछ खाया-पीया
नहीं था । प्यास लगी थी, पर बेटीके गाँवका जल कैसे पीया जाय ?[1] क्योंकि हमारे
वृषभानुजीने यहाँ कन्या दी है‒ऐसा सोचकर उसने वहाँका जल नहीं पीया और बरसानेके लिये
चल दिया । चलते-चलते वह प्यासके कारण रास्तेमें गिर पड़ा । उस समय राधाजी उस चमारकी
कन्याका रूप धारण करके उसके पास आयीं और बोलीं कि पिताजी ! मैं आपके लिये जल लायी हूँ, पी लो । चमारने
कहा कि बेटी ! मैं अभी नन्दगाँवकी सीमामें हूँ; अतः मैं यहाँका पानी नहीं पी सकता ।
राधाजीने कहा कि पिताजी ! मैं तो बरसानेका जल लायी हूँ । उसने वह जल पी लिया और कहा
कि बेटी ! अब तुम जाओ, मैं आता हूँ । राधाजी चली गयीं । चमार अपने घर पहुँचा
तो उसने अपनी बेटीको गोदमें लेकर कहा कि बेटी ! तुमने जल पिलाकर मेरे प्राण बचा लिये
! अगर तुम जल लेकर नहीं आती तो मेरे प्राण चले जाते । कन्याने कहा कि पिताजी ! मैं
तो जल लेकर आयी ही नहीं थी ! तब चमार समझ गया कि राधाजी ही मेरी कन्याका रूप धारण करके
जल पिलाने आयी थीं । तात्पर्य है कि पहले लोग अपनी बेटीके गाँवका भी अन्न-जल नहीं लेते
थे ।
जबतक
कन्याकी सन्तान न हो जाय, तबतक उसके घरका
अन्न-जल नहीं लेना चाहिये । परंतु कन्याकी सन्तान होनेपर माता-पिता कन्याके यहाँका
अन्न-जल ले सकते हैं । कारण कि दामादने केवल पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये ही दूसरेकी
कन्या स्वीकार की है । उससे सन्तान होनेपर दामाद पितृऋणसे मुक्त हो जाता है; अतः
कन्यापर माँ-बापका अधिकार हो जाता है, तभी
तो दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण करता है, उनको पिण्ड-पानी देता है और परलोकमें
नाना-नानी अपने दौहित्रके द्वारा किया हुआ श्राद्ध-तर्पण, पिण्ड-पानी
स्वीकार भी करते हैं । यदि कन्याकी सन्तान पुत्री हो, पुत्र
न हो, तो
भी उसके घरका अन्न-जल ले सकते हैं; क्योंकि
सन्तान होनेसे कन्यादान सफल हो जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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