(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒पत्नी और पुत्र आपसमें लड़ें तो पुरुषका क्या कर्तव्य है ?
उत्तर‒उसे पुत्रको समझाना
चाहिये कि ‘बेटा ! माँको
प्रसन्न रखना तुम्हारा विशेष कर्तव्य है । संसारमें जितने भी सम्बन्ध हैं, उन सबमें माँका
सम्बन्ध ऊँचा है । अतः अपनी स्त्रीके वशीभूत होकर तुम्हें माँका चित्त नहीं दुखाना
चाहिये ।’
पत्नीसे कहना
चाहिये कि ‘तुमने इसको पेटमें
रखा है, जन्म दिया है, अपना दूध पिलाया है । अपनी गोदमें टट्टी-पेशाब करनेपर
भी तुमने इसपर कभी गुस्सा नहीं किया, प्रत्युत प्रसन्नतासे उत्साहपूर्वक
कपड़े धोये । अब यह तुम्हें कुछ कड़ुआ भी बोल दे तो भी अपना प्यारा पुत्र मानकर इसको
क्षमा कर दो;
क्योंकि तुम माँ
हो । पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं हो सकती‒‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’ ।
प्रश्न‒परिवारमें प्रेम और सुख-शान्ति कैसे रहे ?
उत्तर‒जब
मनुष्य अपने उद्देश्यको भूल जाता है, तभी
सब बाधाएँ, आफतें आती हैं । अगर वह अपने उद्देश्यको
जाग्रत् रखे कि चाहे जो हो जाय, मुझे अपनी आध्यात्मिक
उन्नति करनी ही है, तो फिर वह सुख-दुःखको
नहीं गिनता‒‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न
च सुखम् ॥’ और अपने स्वार्थ एवं अभिमानका त्याग करनेमें उसको कोई
कठिनाई भी नहीं होती । स्वार्थ और अभिमानका त्याग होनेसे व्यवहारमें कोई बाधा, अड़चन नहीं आती
। व्यवहारमें, परस्पर
प्रेम होनेमें बाधा तभी आती है जब मनुष्य अपनी मूँछ रखना चाहता है, अपनी
बात रखना चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है ।
दूसरेका
भला कैसे हो, उसका कल्याण कैसे हो, उसका
आदर-सम्मान कैसे हो, उसको सुख-आराम
कैसे मिले‒यह बात जब आचरणमें आ जाती है, तब
सब कुटुम्बी प्रसन्न हो जाते हैं । किसी समय कोई कुटुम्बी अप्रसन्न
भी हो जाय तो उसकी अप्रसन्नता टिकेगी नहीं, स्थायी नहीं रहेगी; क्योंकि जब कभी
वह अपने लिये ठीक विचार करेगा, तब उसकी समझमें आ जायगा कि मेरा
हित इसी बातमें है । जैसे बालकको पढ़ाया जाय तो खेलकूदमें वृत्ति रहनेके कारण उसको पढ़ाई
बुरी लगती है,
पर परिणाममें
उसका हित होता है । ऐसे ही कोई बात ठीक होते हुए भी किसीको बुरी लगती है तो उस समय
भले ही उसकी समझमें न आये, पर भविष्यमें जरूर समझमें आयेगी । कदाचित् उसकी समझमें
न भी आये तो भी हमें अपनी नीयत और आचरणपर सन्तोष होगा कि हम उसका भला चाहते हैं और
हमारे भीतर एक बल रहेगा कि हमारी बात सच्ची और ठोस है ।
आपसमें
प्रेम रहनेसे ही परिवारमें सुख-शान्ति रहती है । प्रेम होता है अपने स्वार्थ और अभिमानके
त्यागसे । जब स्वार्थ और अभिमान नहीं रहेगा, तब
प्रेम नहीं होगा तो क्या होगा ! दूसरा व्यक्ति अपने स्वार्थके
वशीभूत होकर हमारे साथ कड़ुआ बर्ताव करता है तो कभी-कभी यह भाव पैदा होता है कि मैं
तो इसके साथ अच्छा बर्ताव करता हूँ, फिर भी यह प्रसन्न नहीं हो रहा
है, मैं क्या करूँ
! ऐसा भाव होनेमें हमारी सूक्ष्म सुख-लोलुपता ही कारण है; क्योंकि दूसरे व्यक्तिके तत्काल सुखी, प्रसन्न
होनेसे एक सुख मिलता है । अतः इस सुख-लोलुपताका पता लगते ही इसका त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि
हमें केवल अपना कर्तव्य निभाना है, दूसरेका
आदर करना है, उसके प्रति प्रेम करना है । हमारे भाव और
आचरणका उसपर असर पड़ेगा ही । हाँ, अन्तःकरणमें कठोरता होनेके कारण उसपर असर न भी पड़े
तो भी हमने अपनी तरफसे अच्छा किया‒इस बातको लेकर हमें सन्तोष होगा । सन्तोष होनेसे
हमारा प्रेम घटेगा नहीं और परिवारमें भी सुख-शान्ति रहेगी ।
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’
पुस्तकसे
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