(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒क्या जीवनमें गुरु बनाना जरूरी है ?
स्वामीजी‒हरेकको गुरु बनानेमें लाभ नहीं है, हानि है । वास्तवमें जो गुरु बननेलायक हैं,
वे तो गुरु बनते नहीं और जो गुरु बननेलायक नहीं हैं,
वे भेट-पूजाके लिये गुरु बन जाते हैं ! अतः गुरु बनानेमें मेरी
सम्मति नहीं है । जो शिष्यका उद्धार नहीं कर सके,
उसको गुरु नहीं बनना चाहिये । आप मेरी ‘क्या
गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक पढ़ो ।
श्रोता‒गुरु नहीं बनानेसे क्या दान, धर्म, तीर्थ, व्रत, नामजप करना निष्फल हो जायगा ?
स्वामीजी‒कभी निष्फल नहीं होगा । भगवान्का सबके साथ स्वतन्त्र सम्बन्ध है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता
१५ । ७) । बीचमें किसी
दलाल (गुरु) की जरूरत नहीं है । मैं गुरु नहीं बनता,
पर बात सब बताता हूँ । आप चेला बनें,
फिर मैं बताऊँगा‒यह व्यापार मैं करता ही नहीं ।
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श्रोता‒हम चाहती हैं कि जैसे हमने कष्ट सहे हैं,
वैसे हमारी बहुएँ कष्ट न सहे । परन्तु आजकलकी बहुएँ ही ऐसी हैं
कि हमारी बात ही नहीं मानतीं और तंग करती हैं ! अब हमें क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी‒बेटे और बहूको प्रेमसे अलग कर देना चाहिये । उनको स्वतन्त्र कर देना चाहिये,
जबकि स्वतन्त्र होनेमें उनका कल्याण नहीं है । परन्तु उनमें
कल्याणकी चाहना है ही नहीं !
मैं अभीतक शासनमें रहना अच्छा मानता हूँ । इससे फायदा होता है
। मैंने शासनमें रहकर ही बहुत जीवन बिताया है । जैसे बहू रहे,
ऐसे मैं रहा हूँ ! जो अच्छे आदमी हैं, हमारा
हित चाहते हैं, उनके पास रहनेसे, उनका
कहना माननेसे मुफ्तमें फायदा होता है,
इसमें सन्देह नहीं है । अपनी मनमानी करनेवालेका कल्याण
नहीं होता ।
प्रत्येक काममें दो बातें खास हैं‒अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेका
हित । कोई भी काम इस भावसे मत करो कि इससे मेरेको क्या फायदा होगा,
प्रत्युत इस भावसे करो कि इससे दूसरेको क्या फायदा होगा । जो
अपना मतलब सिद्ध करनेमें लगे हैं, वे अपना कल्याण नहीं कर सकते ।
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श्रोता‒भगवान् कहते हैं कि मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन नष्ट कर देता हूँ तो फिर
भगवान्की कृपा, करुणा क्या काम आयी ?
अतः इसका तात्पर्य आप बतायें ।
स्वामीजी‒जो लोग वैद्यके पास जाते हैं, उन सबको वैद्य जुलाब नहीं देता । जिसके पेटमें खराबी होती है,
उसीको जुलाब देता है । जुलाब देनेसे रोगी कमजोर पड़ जाता है,
फिर दवाई देनेसे वह ठीक हो जाता है । इसी तरह जिसका धन खराब
है, उसीका धन भगवान् नष्ट करते हैं । वे सबका धन नष्ट नहीं करते,
नहीं तो अम्बरीष-जैसे राजा भगवान्के भक्त कैसे होते ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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