(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीर मिला है और बिछुड़नेवाला है । उस शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना जीवकी मूल भूल है, जिससे वह बन्धनमें पड़ा है । इस भूलको मिटानेके लिये ही भगवत्कृपासे जीवको विवेकप्रधान
मनुष्यशरीर मिला है । उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, घटना और नष्ट होना‒ये छहों विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरी
(आत्मा अर्थात् चिन्मय सत्ता)-तक ये विकार पहुँचते ही नहीं, पहुँच सकते ही नहीं । अंधकार सूर्यतक पहुँच ही कैसे सकता है !
जिस कल्याणकी प्राप्ति विवेकप्रधान ज्ञानयोगसे होती है, उसी कल्याणकी प्राप्ति कर्मयोगसे भी हो सकती है । यह अन्य शास्त्रोंकी अपेक्षा
गीताकी विलक्षणता है । कल्याणकी प्राप्तिमें ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों ही साधनोंको
भगवान् समकक्ष बताते हैं‒
सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ
। (५ । २)
एकमप्यास्थित सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्
॥ (५ । ४)
यत्सांख्यैः
प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । (५
। ५)
इन दोनों ही साधनोंको भगवान् लौकिक बताते हैं (३ । ३) । इन साधनोंसे
साधककी बुद्धि समतामें स्थिर हो जाती है । ज्ञानयोगमें अपने विवेकको महत्त्व देनेसे
समता आती है और कर्मयोगमें निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करनेसे समता आती है ।
अन्य शास्त्रोंमें यह बात प्रसिद्ध है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर
कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; जैसे‒
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः
कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्
॥
(मुण्डक॰ १ । २ । १२)
‘कर्मसे प्राप्त किये जानेवाले लोकोंकी परीक्षा
करके ब्राह्मण वैराग्यको प्राप्त हो जाय, यह समझ ले कि किये जानेवाले कर्मोंसे परमात्मतत्त्व नहीं मिल
सकता । वह उस ब्रह्मज्ञानको प्राप्त करनेके लिये हाथमें समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ
गुरुके पास जाय ।’
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
(श्रीमद्भा॰ ११ । २० । ९)
‘तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक वैराग्य न हो जाय ।’
परन्तु गीताके अनुसार कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना असम्भव है‒
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः
॥
(३ । ५)
‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी
कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण
कर्म करवा लेते हैं ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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