।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
दिनचर्या और आयुश्चर्या


आयुश्चर्या
(गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवान्‌ने, शास्त्रोंने, महर्षियोंने, महापुरुषोंने मनुष्योंको मिली हुई आयुका सदुपयोग करनेके लिये उसके चार विभाग कर दिये हैं अर्थात् मनुष्योंकी आयुश्चर्याको चार आश्रमोंमें विभक्त कर दिया है‒ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।

पहला विभाग है‒ब्रह्मचर्य-आश्रम । एकसे पचीस वर्षतक मनुष्यको ब्रह्मचारीके नियमोंका एवं गुरु-आज्ञाका पालन करते हुए विद्याध्ययन करना चाहिये । उसे ब्रह्मचर्य-आश्रममें शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक, दैशिक, आध्यात्मिक आदि उन्नतिके लिये सब तरहकी योग्यताका सम्पादन करना चाहिये ।

ब्रह्मचर्य-आश्रममें जो ब्रह्मचारी सांसारिक भोगोंको बिना ही भोगे विचारद्वारा उनका त्याग कर सकता है उसको अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सीधे ही संन्यास-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । परन्तु जो ब्रह्मचारी विचारपूर्वक भोगोंका त्याग नहीं कर सकता, अपनी वृत्तियोंको भोगोंसे उपरत नहीं कर सकता, जिसके मनमें बार-बार भोगोंकी वृत्तियाँ आती हैं, उसको गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । उसको चाहिये कि वह विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य-आश्रमका समापन करके भोगोंका ज्ञान करनेके उद्देश्यसे ही गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करे और शास्त्र तथा कुल-मर्यादाके अनुसार विवाह करे ।

गृहस्थ-आश्रम पचीस वर्षका है । इन पचीस वर्षोंमें मनुष्य शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार न्याययुक्त भोग भोगे, द्रव्यका उपार्जन करे तथा द्रव्यका यथोचित व्यय करे । अतिथि-सत्कार करे । पिताके धनका आश्रय न ले, प्रत्युत स्वयंके उपार्जित धनसे ही माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदिका पालन-पोषण करे । यद्यपि पिताका धन लेना कोई पाप नहीं है, तथापि मनुष्यको गृहस्थ-आश्रममें प्रवेशसे पहले ही ऐसी योग्यता प्राप्त कर लेनी चाहिये, जिससे वह खुदका निर्वाह स्वयं (अपने पुरुषार्थसे) कर सके किसीपर निर्भर न रहे । पिताके धनको श्राद्ध-तर्पण, यज्ञ, दान आदिमें तथा कुआँ, बगीचा, धर्मशाला आदि बनवानेमें खर्च करे ।


गृहस्थ-आश्रमका उपभोग करके तपस्या करनेके लिये वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । वानप्रस्थ-आश्रम पचीस वर्षका है और यह सरदी-गरमी, वात-वर्षा, भूख-प्यास आदि सब प्रकारकी प्रतिकूलताओंको सहनेकी शक्ति सम्पादन करनेके लिये है । जैसे‒सरदीके दिनोंमें एक घड़ेके तलेमें छेद करके उसको जलसे भरकर एक तख्तेपर रख दे और मध्यरात्रिमें दो-तीन घण्टेतक उस घड़ेकी जलधाराका सेवन करे अथवा आकण्ठ जलमें खड़ा रहे । वर्षाकालमें पर्वतकी चोटीपर बैठे । गरमीके दिनोंमें पंचाग्नि तपे अर्थात् ऊपर सूर्य तपता हो और नीचे चारों तरफ कण्डोंकी अग्नि जलती रहे । ऐसी तपश्चर्या न कर सके तो कम-से-कम भूख-प्यासको सह सके और संन्यास-आश्रमका ठीक पालन हो सके‒ऐसा सहिष्णु तो बनना ही चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे