।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, सोमवार
परोपकारका सुगम उपाय



भगवान्‌का भजन-स्मरण स्वयं करनेसे और दूसरोंसे करवानेसे बड़ा लाभ होता है । भागवतमें आया है‒

स्मरन्तः स्मारयन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।
                                                     (११ । ३ । ३१)

‘भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण पापराशिको एक क्षणमें भस्म कर देते हैं । सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें ।’

दूसरोंको भगवान्‌में लगानेका बड़ा भारी पुण्य होता है । शास्त्रमें आया है‒‘अन्नदानं महादानं विद्यादानं ततोऽधिकम्’ अर्थात् अन्नदान महादान है, पर विद्यादान उससे भी बड़ा दान है । विद्याओंमें सबसे श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या है । ब्रह्मविद्याका दान तो कोई तत्त्वज्ञ महापुरुष ही कर सकता है, पर एक ऐसा विद्यादान है, जिसको सभी भाई-बहन कर सकते हैं । वह विद्यादान है‒भगवान्‌के नामका, गुणोंका, लीलाओंका, महिमाका, तत्त्वका प्रचार । यह प्रचार साधारण-से-साधारण आदमी भी कर सकता है । इसका अभी बड़ा सुन्दर अवसर आया हुआ है ।

गीताप्रेसके द्वारा बड़े अच्छे-अच्छे ग्रन्थ बहुत सरल भाषामें और थोड़े मूल्यमें प्रकाशित किये जाते हैं । मैंने श्रेष्ठ पुरुषोंसे सुना है कि गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ घरमें पड़े-पड़े कल्याण करते हैं । एक मेरे मित्र थे । वे खूब नाम-जप करते थे । वे कहते थे कि मैं गीता, रामायण, तत्त्व-चिन्तामणि आदि ग्रन्थ अपने सामने रख देता हूँ और उनकी तरफ देखते हुए नाम-जप करता हूँ तो उनमें लिखी बातें याद आनेसे जप बड़ी तेजीसे होता है । इस तरह इन ग्रन्थोंसे बहुत लाभ होता है ।

अगर दूसरोंके हितके लिये इन पुस्तकोंका प्रचार किया जाय तो लोगोंको बड़ी शान्ति मिलती है । ऐसे कई सज्जन मेरेसे मिले हैं, जिनका गीताप्रेसकी पुस्तकोंके द्वारा जीवन बदल गया । पुस्तकोंसे आश्चर्यजनक लाभ होता है । जब मैं संस्कृतका विद्यार्थी था, तब साधारण भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता था । पैसोंके अभावके कारण मनचाही पुस्तक नहीं मँगा सकता था । तब मैंने और एक दूसरे विद्यार्थीने मिलकर गीताप्रेसको पत्र दिया कि हम ‘कल्याण’ के ग्राहक बनना चाहते हैं, अतः कुछ रियायत हो जाय । उस समय ‘कल्याण’ चार रुपयेमें मिलता था, पर उन्होंने हमें तीन रुपयेमें भेज दिया तो बड़ी प्रसन्नता हुई कि हमारेपर बड़ी कृपा हो गयी ! ‘कल्याण’ पढ़नेको मिल गया !

पुस्तकोंसे बड़ा लाभ होता है‒इसका मेरेको अनुभव है । सत्संगसे और पुस्तकोंसे मेरेको जितना लाभ हुआ है, उतना दूसरे किसी साधनसे नहीं हुआ है । गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक तथा संरक्षक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाकी पुस्तकोंका मेरेपर बड़ा असर पड़ा था । उनकी पुस्तकोंको पढ़नेसे ऐसा लगा कि ये अनुभवके जोरसे लिखी गयी हैं, विद्वत्ताके जोरसे नहीं । उनकी पुस्तकोंको पढ़कर ही मैं उनके पास गीताप्रेस गया ।


गीताप्रेससे प्रकाशित पुस्तकें बड़ा असर करनेवाली हैं । उनको पढ़नेसे बड़ा संतोष होता है, शान्ति मिलती है । उन पुस्तकोंकी कई प्रतियाँ अपने पास रखो और दूसरोंको पढ़नेके लिये दो । उनसे कहो कि यह पुस्तक पढ़कर हमारेको दे देना ।  फिर उनसे पूछते रहो कि आपने वह पुस्तक पढ़ ली कि नहीं ? वे पूरी पढ़कर पुस्तक दे दें तो फिर दूसरी पुस्तक दे दो । इससे पुस्तकोंका बहुत बढ़िया प्रचार होता है । मुफ्तमें पुस्तकें देना भी विद्यादान है, पर मुफ्तमें देनेसे लोग प्रायः पुस्तकका आदर नहीं करते, उसको पढते नहीं । उपर्युक्त प्रकारसे पुस्तकें पढ़नेके लिये दी जायँ तो लोग उनको पढ़ते हैं । किसीको कोई पुस्तक बहुत अच्छी लगे और वह लेना चाहे तो उसको वह पुस्तक दे दो । इस तरह पुस्तकोंका प्रचार करना चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे