।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७३, बुधवार
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोता‒परमात्मतत्त्व सबको प्राप्त है और हमारा स्वरूप परमात्मस्वरूप है, इसका ज्ञान हो जानेके बाद क्या भजनकी, भक्तिकी आवश्यकता नहीं रहती ?

स्वामीजी‒अपनेको दो-चार रत्न मिल जायँ तो क्या फिर धन नहीं कमाते ? क्या लखपति, करोड़पति अथवा अरबपति धन नहीं कमाते ? क्या वे धन कमाना छोड़ देते हैं ? क्या भगवान् नाशवान् धनसे भी रद्दी हैं ? क्या धन मिलनेपर हम जीना छोड़ देते हैं ? आपने भगवान्‌को समझा नहीं, तभी ऐसा प्रश्न पैदा होता है । भगवान् तो प्राणोंसे भी प्यारे हैं, वे छोड़े कैसे जायँ ? चाहे हमारी मुक्ति हो जाय, कोई कामना नहीं रहे, तो भी हम भजन करेंगे । भजन तो भगवान्‌का प्यार है, उसको कैसे छोड़ेंगे ? भगवान् शंकरको मुक्ति करनी है या तत्त्वज्ञान करना है, क्या प्राप्त करना बाकी है ? पर वे भी दिनरात रामराम जपते हैं‒

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर   जपहु  अनँग  आराती ॥
                             (मानस, बाल १०८ । ४)
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जीव भगवान्‌का अंश है । अगर उसको भगवान् अच्छे, प्यारे लगने लग जायँ तो सब काम अपने-आप ठीक हो जायगा । एक भगवान्‌का आकर्षण है और एक सांसारिक पदार्थोंका आकर्षण है । भगवान्‌का आकर्षण स्वाभाविक है, पर पदार्थोंका आकर्षण हमारा बनाया हुआ है । हमने ही उनसे सम्बन्ध जोड़ा है । पदार्थोंमें खींचनेकी शक्ति नहीं है । परन्तु भगवान्‌में खुदमें आकर्षण है, इसलिये उनका नाम कृष्ण’ है । पदार्थोंमें जो खिंचाव दीखता है, वह भी वास्तवमें भगवान्‌का ही है, पर हम उसको भगवान्‌का न मानकर संसारका मान लेते हैं ।

पदार्थोंमें आकर्षण अपने सुखके लिये होता है, पर भगवान्‌का आकर्षण भगवान्‌के लिये होता है । भगवान्‌की तरफ आकर्षण किसी भी तरहसे हो, वह कल्याण करनेवाला होता है । कंसका भयसे और और शिशुपालका द्वेषसे भगवान्‌में आकर्षण हुआ तो भी उनका कल्याण हो गया ।

कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य   तदघं    हित्वा    बहवस्तद्‌गतिं   गताः ॥
                                           (श्रीमद्भा ७ । १ । २९)


एक नहीं, अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्‌में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्‌को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे