(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒परमात्मतत्त्व
सबको प्राप्त है और हमारा स्वरूप परमात्मस्वरूप है, इसका
ज्ञान हो जानेके बाद क्या भजनकी, भक्तिकी
आवश्यकता नहीं रहती ?
स्वामीजी‒अपनेको दो-चार रत्न मिल जायँ तो क्या फिर धन नहीं कमाते ?
क्या लखपति, करोड़पति अथवा अरबपति धन नहीं कमाते ?
क्या वे धन कमाना छोड़ देते हैं ?
क्या भगवान् नाशवान् धनसे भी रद्दी हैं ?
क्या धन मिलनेपर हम जीना छोड़ देते हैं ?
आपने भगवान्को समझा नहीं,
तभी ऐसा प्रश्न पैदा होता है । भगवान् तो प्राणोंसे भी प्यारे
हैं, वे छोड़े कैसे जायँ ? चाहे हमारी मुक्ति हो जाय, कोई
कामना नहीं रहे, तो भी हम भजन करेंगे । भजन तो भगवान्का प्यार है, उसको
कैसे छोड़ेंगे ? भगवान् शंकरको
मुक्ति करनी है या तत्त्वज्ञान करना है, क्या प्राप्त करना बाकी है ?
पर वे भी दिनरात रामराम जपते हैं‒
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनँग आराती
॥
(मानस, बाल॰ १०८ । ४)
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जीव भगवान्का अंश है । अगर उसको भगवान् अच्छे,
प्यारे लगने लग जायँ तो सब काम
अपने-आप ठीक हो जायगा । एक भगवान्का आकर्षण है और एक सांसारिक
पदार्थोंका आकर्षण है । भगवान्का आकर्षण स्वाभाविक है,
पर पदार्थोंका आकर्षण हमारा बनाया हुआ है । हमने ही उनसे सम्बन्ध
जोड़ा है । पदार्थोंमें खींचनेकी शक्ति नहीं है । परन्तु भगवान्में खुदमें आकर्षण है,
इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है । पदार्थोंमें जो खिंचाव दीखता है,
वह भी वास्तवमें भगवान्का ही है,
पर हम उसको भगवान्का न मानकर संसारका मान लेते हैं ।
पदार्थोंमें आकर्षण अपने सुखके लिये होता है,
पर भगवान्का आकर्षण भगवान्के लिये होता है । भगवान्की तरफ आकर्षण किसी भी तरहसे हो, वह
कल्याण करनेवाला होता है । कंसका भयसे और और शिशुपालका द्वेषसे भगवान्में आकर्षण हुआ तो भी उनका कल्याण
हो गया ।
कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य तदघं हित्वा
बहवस्तद्गतिं गताः ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । १ । २९)
‘एक नहीं, अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्में लगाकर एवं
अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |