।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण पंचमीवि.सं.२०७३शुक्रवार
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवान् हरदम आपके साथ रहते हैं‒‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ’, पर इसकी तरफ आपकी दृष्टि नहीं है । जो सदा आपके साथ रहनेवाले नहीं हैं, उनकी आप आशा रखते हैं ! संसारकी आशावाला कभी सुखी नहीं हो सकता । कम-से-कम, कम-से-कम इस संसारकी आशा छोड़ दें कि ये हमारा कहना मानेंगे, हमारा साथ देंगे, हमारी सहायता करेंगे । बाहरसे तो कहे (जताये) नहीं, पर भीतरसे जाने कि किसीसे कोई मतलब नहीं है । इस बातको हृदयमें पकाओ । दूसरे हमारे विरुद्ध होते हैं, हमारा कहना नहीं मानते हैं, वे क्रियात्मक उपदेश दे रहे हैं; मानो यह कह रहे हैं कि तुम हमारी आशा मत रखो ।
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हमारे सामने दो चीजें हैं‒क्रिया और पदार्थ । ये दोनों ही असत् हैं । परन्तु क्रिया और पदार्थपर ही ज्यादा विश्वास हो रहा है ! इससे बहुत अनर्थ हो रहा है ! वास्तवमें क्रिया और पदार्थ केवल दूसरोंके हितके लिये हैं, हमारे लिये नहीं हैं । हमारे लिये तो केवल परमात्मा हैं, जिनके हम अंश हैं । अगर सब काम दूसरोंकी सेवाके लिये किया जाय तो सब महान् सुखी हो जायँगे ।

कर्मयोगसे तत्त्वज्ञान, परमात्मप्राप्ति हो जाती है । इसमें दो बातें आवश्यक हैं‒अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित । अगर स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये ही सब काम करें तो सब कर्मयोगी हो जायँगे । मेरेको सुख मिले‒इस भावसे बड़ा भारी अनर्थ हो रहा है ! अगर यह भाव मिट जाय तो सब सुखी हो जायँगे । सबका हित कैसे हो, सब सुखी कैसे हों, सबका कल्याण कैसे हो, सब भगवान्‌में कैसे लगें, सब जीवन्मुक्त कैसे बनें‒यह भाव हो जाय तो सब काम ठीक हो जायगा ।

भगवान् हमारे हैं और उनका संसार सेवा करनेके लिये है-यह एकदम सच्ची बात है । भगवान्‌को याद रखनेसे और संसारकी सेवा करनेसे हमारा कल्याण हो जायगा । भगवान् हमारे हैं और हमारे लिये हैं । यह शरीर हमारे लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंकी सेवाके लिये है ।


क्रिया और पदार्थ‒ये दोनों प्रकृतिके हैं । इनको दूसरोंकी सेवामें लगाना है । इन दोनोंसे हमें सम्बन्ध-विच्छेद करना है । जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, क्रिया और पदार्थके द्वारा ही उन्नति माननेवाले हुए हैं । इनसे ऊँचे उठनेवाले सन्त बहुत कम हुए हैं । हमें क्रिया और पदार्थका सहारा न लेकर केवल भगवान्‌का सहारा लेना है । भगवान्‌के समान अपना कोई नहीं है । अतः क्रिया और पदार्थकी प्रधानता न होकर भगवान्‌की प्रधानता होनी चाहिये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे