(गत ब्लॉगसे
आगेका)
भगवान् हरदम आपके साथ रहते हैं‒‘सर्वस्य
चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ’,
पर इसकी तरफ आपकी दृष्टि नहीं है । जो सदा आपके साथ रहनेवाले
नहीं हैं, उनकी आप आशा रखते हैं ! संसारकी आशावाला कभी सुखी नहीं हो सकता
। कम-से-कम, कम-से-कम
इस संसारकी आशा छोड़ दें कि ये हमारा कहना मानेंगे, हमारा
साथ देंगे, हमारी सहायता करेंगे । बाहरसे तो कहे (जताये) नहीं, पर
भीतरसे जाने कि किसीसे कोई मतलब नहीं है । इस बातको हृदयमें पकाओ । दूसरे हमारे विरुद्ध
होते हैं, हमारा कहना नहीं मानते हैं, वे
क्रियात्मक उपदेश दे रहे हैं; मानो यह कह रहे हैं कि तुम हमारी आशा मत रखो ।
☀☀☀☀☀
हमारे सामने दो चीजें हैं‒क्रिया और पदार्थ । ये दोनों ही असत्
हैं । परन्तु क्रिया और पदार्थपर ही ज्यादा विश्वास हो रहा है ! इससे बहुत अनर्थ हो
रहा है ! वास्तवमें क्रिया और पदार्थ केवल दूसरोंके हितके
लिये हैं, हमारे लिये नहीं हैं । हमारे लिये तो केवल परमात्मा हैं,
जिनके हम अंश हैं । अगर सब काम दूसरोंकी सेवाके लिये किया जाय
तो सब महान् सुखी हो जायँगे ।
कर्मयोगसे तत्त्वज्ञान,
परमात्मप्राप्ति हो जाती है । इसमें दो बातें आवश्यक हैं‒अपने
स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित । अगर स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये ही
सब काम करें तो सब कर्मयोगी हो जायँगे । मेरेको सुख मिले‒इस भावसे बड़ा भारी अनर्थ हो
रहा है ! अगर यह भाव मिट जाय तो सब सुखी हो जायँगे । सबका हित कैसे हो,
सब सुखी कैसे हों, सबका कल्याण कैसे हो,
सब भगवान्में कैसे लगें,
सब जीवन्मुक्त कैसे बनें‒यह भाव हो जाय तो सब काम ठीक हो जायगा
।
भगवान् हमारे हैं और उनका संसार सेवा करनेके लिये है-यह एकदम
सच्ची बात है । भगवान्को याद रखनेसे और संसारकी सेवा करनेसे
हमारा कल्याण हो जायगा । भगवान् हमारे हैं और हमारे लिये हैं । यह शरीर हमारे
लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंकी सेवाके लिये है ।
क्रिया और पदार्थ‒ये दोनों प्रकृतिके हैं । इनको दूसरोंकी सेवामें
लगाना है । इन दोनोंसे हमें सम्बन्ध-विच्छेद करना है । जितने
सन्त-महात्मा हुए हैं, क्रिया और पदार्थके द्वारा ही उन्नति माननेवाले हुए
हैं । इनसे ऊँचे उठनेवाले सन्त बहुत कम हुए हैं । हमें क्रिया और पदार्थका सहारा न लेकर केवल भगवान्का सहारा
लेना है । भगवान्के समान अपना कोई नहीं है । अतः क्रिया और पदार्थकी प्रधानता न होकर
भगवान्की प्रधानता होनी चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |