(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपना एक ही इष्ट और एक ही मन्त्र रखना चाहिये । दूसरे मन्त्रकी
महिमा सुनकर अपने मन्त्रको मत बदलो । कोई कुछ भी कहे,
लोभमें मत पड़ो । भगवान्के जिस नाममें आपकी श्रद्धा हो,
जो नाम आपको प्यारा लगे,
उसीको जपनेसे आपको लाभ होगा । भगवान्के
किसी भी नाममें कम शक्ति नहीं है । सब नाम कल्याण करनेवाले हैं ।
श्रोता‒भजन
करते समय संसारकी बातें बहुत याद आती हैं । ऐसे समयमें क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी‒‘हे नाथ ! हे नाथ !’ करना चाहिये । आर्त होकर ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । भगवान्की कृपासे ठीक होगा,
यह विश्वास रखो । कोई भी आफत हो तो
भगवान्को पुकारो । भगवान्के सिवाय कोई अपना नहीं है ।
आप सच्चे हृदयसे भजनमें लग जाओ । आपको कोई बाधा नहीं लगेगी ।
सब काम ठीक होगा । कोई काम बिगड़ेगा नहीं; जैसे‒आपके घरमें विवाह होता है तो काम-धंधा भी चलता रहता है,
बन्द नहीं होता । भजन बाधक नहीं होगा,
प्रत्युत सहायक होगा । भगवान्को याद रखनेसे बुद्धि शुद्ध,
निर्मल होती है । परीक्षाके दिनोंमें
विद्यार्थियोंने रामचरितमानसका नवाह पाठ करते हुए परीक्षा दी और पास हो गये‒ऐसा मैंने
देखा है !
संसारका काम तो एक दिन बिगड़ेगा ही । इसको आजतक कोई
सुधार नहीं सका । भगवान्में लग
जाओ तो कोई नुकसान नहीं होगा । एक किसान था । उसके घर सन्त आ गये तो उन्होंने कहा कि
तुम माला फेरो । किसानने माला फेरी तो उसकी भैंस मर गयी । दूसरे सन्त आये तो उन्होंने
भी कहा कि तू भजन कर । किसान बोला कि महाराज,
आप भजनकी बात करते हैं,
मैं जो एक माला फेरता हूँ, उसको भी छोड़नेका मन करता है;
क्योंकि मेरी एक भैंस मर गयी । सन्त बोले कि माला छोड़ेगा तो
सभी भैंसें मर जायँगी ! भगवान्में लगनेसे एक भैंस मर गयी,
नेगचार पूरा हो गया ! अब और नहीं मरेगी । भगवान्का नाम जहर
थोड़े ही है कि उससे भैंस मर जाय !
तुलसी सीताराम कहु दृढ़ राखहु बिस्वास ।
कबहूँ बिगरे ना
सुने रामचन्द्र के दास ॥
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श्रोता‒मैं
भगवान्की हूँ और भगवान् मेरे हैं‒यह मैं रोज भगवान्से प्रार्थना करती हूँ । पर यह
बात मनमें कब पक्की होगी कि मैं भगवान्की हो गयी और भगवान् मेरे हो गये ?
स्वामीजी‒यह बात वास्तवमें भीतरसे माननेकी है, कहनेकी या रटनेकी नहीं है । तुम एक ही रातमें ससुरालकी कैसे
हो जाती हो ? माँ बाप, भाई, बहन, भौजाई आदि किसीने भी ‘बीनणीं’ नामसे नहीं कहा, पर ससुरालमें ‘बीनणीं’ नामसे पुकारते ही नींदसे उठ जाती हो ! इस मान्यताको बदलनेमें
कितने दिन लगे ? क्या ‘मैं बीनणीं हूँ’ इसको रटना पड़ा ? ऐसे ही कोई साधु हो जाता है अथवा दूसरेकी गोद
चला जाता है तो उसकी मान्यता बदल जाती है । अतः कुछ करनेकी जरूरत नहीं है,
केवल भीतरसे माननेकी,
स्वीकार करनेकी जरूरत है । स्वीकृति
एक ही बार तत्काल होती है, और जबतक खुद मिटायें नहीं, मिटती
नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |