(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो वस्तु हमारी है, वह हमें मिलेगी ही;
उसको कोई दूसरा नहीं ले सकता । अतः कामना न करके अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये
।
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जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय‒यह इच्छा जबतक रहेगी,
तबतक शान्ति नहीं मिल सकती ।
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मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंको चाहता है‒यह
आश्चर्यकी बात है !
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शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही नाशवान्की इच्छा होती है और
इच्छा होनेसे ही शरीरमें अपनी स्थिति दृढ़ होती है ।
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कुछ चाहनेसे कुछ मिलता है और कुछ नहीं मिलता;
परन्तु कुछ न चाहनेसे सब कुछ मिलता है ।
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निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं । हम प्रशंसा
चाहते हैं तो वास्तवमें हम प्रशंसाके योग्य नहीं हैं;
क्योंकि जो प्रशंसाके योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी चाहना
नहीं रहती ।
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दूसरोंसे अच्छा कहलानेकी इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है । इसलिये
अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत ।
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सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पडे़गा तो
फिर देरी क्यों ?
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जहाँतक बने, दूसरोंकी आशापूर्तिका उद्योग करो,
पर दूसरोंसे आशा मत रखो ।
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विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं,
क्या वह सर्वथा सुखी है ?
क्या वह दुःखी नहीं है ?
दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ?
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कामना छूटनेसे जो सुख होता है,
वह सुख कामनाकी पूर्तिसे कभी नहीं होता ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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