(गत ब्लॉगसे आगेका)
पूर्ण त्याग तभी होता है,
जब त्यागका किंचित् भी अभिमान न आये । अभिमान तभी आता है,
जब अन्तःकरणमें त्याज्य वस्तुका महत्त्व अंकित हो । अतः वस्तुके
त्यागकी अपेक्षा वस्तुके महत्त्वका त्याग श्रेष्ठ है ।
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जबतक किसीसे कोई भी प्रयोजन रहता है,
तबतक वास्तविक त्याग नहीं होता ।
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काम-क्रोध, अहंता-ममता आदिको जब हम पकड़ना जानते हैं,
तो उनको छोड़ना भी हम जानते ही हैं । परन्तु हम उनको छोड़ना चाहते
नहीं, इसीलिये उनके त्यागमें असमर्थता प्रतीत हो रही है ।
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मुक्ति इच्छाके त्यागसे होती है,
वस्तुके त्यागसे नहीं ।
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शरीर कभी भी हमारे काम नहीं आता,
प्रत्युत शरीरमें मैं-मेरेपनका त्याग ही हमारे काम आता है ।
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शरीर-संसार अपने-आप छूट रहे हैं,
पर इससे कल्याण नहीं होगा । छूटनेवाली चीजको आप छोड़ दें,
उससे मैं-मेरापन हटा लें,
तब कल्याण होगा ।
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अन्तःकरणमें रुपयोंका महत्त्व होनेसे ही रुपयोंके त्यागमें विशेषता
दीखती है और उनके त्यागका अभिमान आता है । अतः त्यागके अभिमानमें रुपयोंका ही महत्त्व
है ।
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त्याग करनेसे अपनी उन्नति होती है तथा वस्तु शुद्ध हो जाती है
और भोग करनेसे अपना पतन होता है तथा वस्तुका नाश हो जाता है ।
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मनुष्य खुद तो भोगी बनता है,
पर दूसरोंको त्यागी देखना चाहता है‒यह अन्याय है । यदि उसे त्यागी
अच्छा लगता है तो वह खुद त्यागी क्यों नहीं बनता ?
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वास्तविक त्याग वह है,
जिसमें त्याग-वृत्तिका भी त्याग हो जाय ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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