(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपनेमें गुणोंका अभिमान होनेसे ही दूसरोंमें दोष दीखते हैं और
दूसरोंमें दोष देखनेसे अपना अभिमान पुष्ट होता है ।
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जो साधक अपने दोषोंको मिटाना चाहता है,
उसे दूसरेके दोषोंकी ओर नहीं देखना चाहिये । दूसरोंके दोष देखनेसे
अपने दोष पुष्ट होते हैं और दोषोंके साथ सम्बन्ध हो जानेसे नये-नये दोष उत्पन्न होते
हैं ।
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दूसरोंके दोष देखनेसे न हमारा भला होता है,
न दूसरोंका ।
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मनुष्यका अन्तःकरण जितना दोषी (मलिन) होता है,
उतना ही उसको दूसरोंमें दोष दीखता है । रेडियोकी तरह मलिन अन्तःकरण
ही दोषको पकड़ता है ।
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यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरेको बुरा
समझनेका आपको कोई अधिकार नहीं है ।
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किसीको भी बुरा न समझनेसे भलाई भीतरसे प्रकट होती है ।
भीतरसे प्रकट हुई भलाई ठोस और व्यापक होती है ।
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यदि आप अपनी निर्दोषताको सुरक्षित रखना चाहते हैं तो किसीमें
भी दोष न देखें; न अपनेमें, न दूसरेमें ।
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दूसरेको निर्दोष बनानेकी नीयतसे उसके दोष देखनेमें बुराई नहीं
है । बुराई है‒दूसरेके दोष दीखनेपर प्रसन्न होना ।
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सबका स्वरूप स्वतः निर्दोष है । अतः पुत्र,
शिष्य आदिको स्वरूपसे निर्दोष मानकर और उनमें दीखनेवाले दोषको
आगन्तुक मानकर ही उनको शिक्षा देनी चाहिये,
उनके आगन्तुक दोषको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
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अगर हम दूसरेमें दोष मानेंगे तो उसमें वे दोष आ जायँगे;
क्योंकि उसमें दोष देखनेसे हमारा त्याग,
तप, बल आदि भी उस दोषको पैदा करनेमें स्वाभाविक सहायक बन जायँगे,
जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा और हमारा भी नुकसान होगा ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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