(गत ब्लॉगसे आगेका)
यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः ।
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः ॥
(श्रीमद्भा॰ १ । १७
। १०)
‘जिस राजाके राज्यमें दुष्टोंके उपद्रवसे सारी
प्रजा त्रस्त रहती है, उस मतवाले राजाकी कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य
और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।’
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ।
सो नृपु अवसि नरक अधिकारी ॥
(मानस, अयोध्या॰ ७१ । ३)
प्रजाका शासक राजा होता है और राजाके शासक वीतराग सन्त-महात्मा
होते हैं । धर्म और धर्माचार्यपर राजाका शासन नहीं चलता । उनपर शासन करना राजाका घोर
अन्याय है । धर्म और धर्माचार्यका राजापर शासन होता है । यदि उनका राजापर शासन न हो तो राजा उच्छृंखल
हो जाय ! निर्बुद्धि राजा ही धर्म और धर्माचार्यपर शासन करता है,
उनपर अपनी आज्ञा चलाता है;
क्योंकि वह समझता है कि बुद्धि मेरेमें ही है ! दूसरा भी कोई
बुद्धिमान् है‒यह बात उसको जँचती ही नहीं ।
पहले हमारे देशमें राजालोग राज्य तो करते थे,
पर सलाह ऋषि-मुनियोंसे लिया करते थे । कारण कि अच्छी सलाह वीतराग
पुरुषोंसे ही मिल सकती है, भोगी पुरुषोंसे नहीं । इसलिये कानून बनानेका अधिकार वीतराग पुरुषोंको है । महाराज
दशरथ और भगवान् राम भी प्रत्येक कार्यमें वसिष्ठजीसे सम्मति लेते थे और उनकी आज्ञासे सब काम करते थे ।
परन्तु आजकलके शासक सन्तोंसे सम्मति लेना तो दूर रहा,
उलटे उनका तिरस्कार,
अपमान करते हैं । जो शासक खुद वोटोंके लोभमें,
स्वार्थमें लिप्त है,
उसके बनाये हुए कानून कैसे ठीक होंगे ?
धर्मके बिना नीति विधवा है और नीतिके बिना धर्म विधुर
है । अतः धर्म और राजनीति‒दोनों साथ-साथ होने चाहिये, तभी शासन
बढ़िया होता है । बढ़िया शासनका नमूना
अश्वपतिके इन वचनोंसे मिलता‒
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न
मद्यप ।
नानाहिताग्रिर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ॥
(छान्दोग्य॰ ५ । ११ । १५)
‘मेरे राज्यमें न तो कोई चोर है, न
कोई कृपण , न कोई मदिरा पीनेवाला है, न
कोई अनाहिताग्नि (अग्निहोत्र न करनेवाला) है, न
कोई अविद्वान् है और कोई परस्त्रीगामी ही है, फिर
कुलटा स्त्री (वेश्या) होगी ही कैसे ?’
जो वोटोंके लिये आपसमें लड़ते हैं,
कपट करते है, हिंसा करते
हैं, लोगोंको रुपये दे-देकर, फुसला-फुसलाकर वोट लेते हैं,
उनसे क्या आशा रखी जाय कि वे न्याययुक्त राज्य करेंगे ?
नेतालोग वोट लेने तो जाते हैं, पर वोट
मिलनेके बाद सोचते ही नहीं कि लोगोंकी क्या दशा हो रही है ? वोट लेनेके लिये खूब मोटरें दौड़ायेंगे,
तेल फूँकेंगे, लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करेंगे,
अपना और लोगोंका समय बरबाद करेंगे,
वोट मिलनेके बाद आकर पूछेंगे ही नहीं कि भाई,
तुमलोगोंकी सहायतासे हमें वोट मिले हैं,
तुम्हारे घरमें कोई तकलीफ तो नहीं है ?
तुम्हारा जीवन-निर्वाह कैसा हो रहा है ?
पहले राजालोग शासन करते थे तो वे राज्यकी सम्पत्तिको अपनी न
मानकर प्रजाकी ही मानते थे और उसको प्रजाके ही हितमें खर्च करते थे । प्रजाके हितके
लिये ही वे प्रजासे कर लेते थे । सूर्यवंशी राजाओंके विषयमें महाकवि कालिदास लिखते
हैं‒
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् ।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ॥
(रघुवंश
१ । १८)
‘वे राजालोग अपनी प्रजाके हितके लिये प्रजासे
उसी प्रकार कर लिया करते थे, जिस प्रकार सहस्रगुना करके बरसानेके लिये ही सूर्य
पृथ्वीसे जल लिया करता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे
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