(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब राजाओंमें स्वार्थभाव आ गया और वे प्रजाकी सम्पत्तिका खुद
उपभोग करने लगे, तब उनका परम्परासे अरबों वर्षोंसे चला आया राज्य भी नहीं रहा
। आज झूठ-कपट आदिके बलपर जीतकर आये हुए नेतालोग सोचते हैं
कि हमें तो पाँच वर्षोंतक कुर्सीपर रहना है, आगेका
कोई भरोसा नहीं; अतः जितना संग्रह करके लाभ उठा सकें, उतना
उठा लें, देश चाहे दरिद्र हो जाय । वे यह सोचकर नीति-निर्धारण करते हैं कि धनियोंका धन कैसे नष्ट
हो ? यह नहीं सोचते कि सब-के-सब धनी कैसे हो जायें ?
महाभारतमें आया है‒
यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः ।
तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य
आदद्यादविहिंसया ॥
(महा॰ उद्योग॰ ३४ । १७)
‘जैसे भौंरा फूलोंकी रक्षा करता हुआ ही उनके मधुको
ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाको कष्ट दिये बिना ही
उनसे धन (कर) ग्रहण करे ।’ परन्तु आज सरकार धनियोंका धन छीननेके लिये उनके घरों और दूकानोंमें छापा मारती
है, जो कि डाका डालना ही है, और धनीलोग टैक्ससे बचनेके लिये तरह-तरहकी बेईमानी सीखते हैं
। दोनों ही देशका हित नहीं सोचते कि इस नीतिसे भविष्यमें देशकी क्या दशा होगी ?
सरकार धनियोंसे जबर्दस्ती धन लेनेकी चेष्टा करेगी तो धनियोंके
भीतर भी जबर्दस्ती धन छिपानेका भाव पैदा होगा । इसलिये सरकारको
चाहिये कि वह धनियोंका धन न छीनकर उनके भीतर उदारताका, परोपकारका
भाव जाग्रत् करे । यह भाव वीतराग पुरुषोंके द्वारा ही जाग्रत् किया जा सकता है ।
वर्तमान राजनीति संघर्ष पैदा करनेवाली है । हमें वोट दो,
दूसरी पार्टीको वोट मत दो,
वह ठीक नहीं है‒इससे संघर्ष पैदा होता है । वोट-प्रणालीमें मूर्खताकी प्रधानता है । जिस समाजमें मूर्खोंकी
प्रधानता होती है, वहीं वोट-प्रणाली लागू की जाती है । महात्मा गाँधीका
भी एक वोट और भेड़ चरानेवालेका भी एक वोट ! सज्जन पुरुषका भी एक वोट और दुष्ट पुरुषका
भी एक वोट ! यह समानता मूर्खोंमें ही होती है । ‘अँधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी
टके सेर खाजा ।’ वोट-प्रणालीमे भी बेईमानी होती है । जिनके हाथमें सत्ता होती
है, वे वोट-प्रणालीका खूब दुरुपयोग करते हैं । वोट प्राप्त करनेके लिये विधर्मियोंका
पक्ष लेते हैं, समाजकण्टकोंका पक्ष लेते हैं,
अपराधियोंका सहारा लेते हैं । ये बातें किसीसे छिपी नहीं हैं
।
वास्तवमें वोट देनेका, सरकार
चुननेका अधिकार केवल उन्हीं पुरुषोंको है, जो सच्चे
समाजसेवक, त्यागी, धर्मात्मा, सदाचारी, परोपकारी
हैं । उनमें भी विशेष अधिकार जीवन्मुक्त तत्त्वज्ञ महापुरुषोंको है । माँ कोई कार्य करती है तो बालककी सलाह नहीं लेती;
क्योंकि बालक मूर्ख (बेसमझ) होता है । परन्तु वोट देनेकी वर्तमान
प्रणालीके अनुसार यदि बुद्धिमानोंकी संख्या निन्यानबे है और मूर्खोंकी संख्या सौ है
तो एक वोट अधिक होनेसे मूर्ख जीत जायँगे, बुद्धिमान् हार जायेंगे,
जब कि वास्तवमें सौ मूर्ख मिलकर भी एक बुद्धिमान्की बराबरी
नहीं कर सकते[*] । वर्तमान वोट-प्रणालीके अनुसार जिसकी संख्या अधिक होती है,
वह जीत जाता है और राज्य करता है और जिसकी संख्या कम होती है,
वह हार जाता है । विचार करें,
समाजमें विद्वानोंकी संख्या अधिक होती है या मूर्खोंकी ?
सज्जनोंकी संख्या अधिक होती है या दुष्टोंकी ?
ईमानदारोंकी संख्या अधिक होती है या बेईमानोंकी ?
अध्यापकोंकी संख्या अधिक होती है या विद्यार्थियोंकी ?
जिनकी संख्या अधिक होगी,
वे ही वोटोंसे जीतेंगे और देशपर शासन करेंगे,
फिर देशकी क्या दशा होगी‒विचार करें !
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे
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