(गत ब्लॉगसे आगेका)
मरनेवालोंका सम्बन्ध अपने साथ है नहीं । हम तो
अमर हैं—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।’ अनादिकालसे हम तो वही हैं और शरीर उत्पन्न हो-होकर नष्ट होते हैं । तो शरीरके
रहते हुए ही हम उससे वियोगको स्वीकार कर लें, तो परमात्मामें अपनी स्थितिका अनुभव
स्वतः हो जाय । जिसका वियोग हो रहा है और जिसका वियोग
अवश्यम्भावी है, संयोगके रहते ही उसके वियोगका अभी अनुभव कर लें कि इससे हमारा कोई
सम्बन्ध नहीं ।
साधारण-से-साधारण घरोंके अनुभवकी बात है । भाई-बहन खेलते-खेलते लड़ पड़ते हैं
तो माँ लड़केसे कहती है कि ‘अरे भाई बाईने क्यूँ मारे, आ तो आपरे घरे जाई’ (लड़कीको
क्यों मारता है, यह तो अपने घर जायगी) । अब वह छोटी बच्ची है, सगाई भी नहीं हुई, पर उसकी भावना क्या है ? कि यह अपने
घर जायगी, यहाँ नहीं रहेगी । तो यह सब-का-सब जानेवाला है । जा रहा है हरदम ।
विवाहका दिन नजदीक आ रहा है कि नहीं ? उसके रवाना होनेका दिन नजदीक आ रहा है कि
नहीं ? तो आज ही मान लो कि यह अपनी नहीं है । हाँ, लड़कीका पालन-पोषण कर दो, उसे
भोजन दे दो, कपड़ा दे दो । लड़कीकी तरह यह सारा संसार जानेवाला है । इसकी सेवा कर दो
। यह सेवा करनेके लिये ही है, लेनेके लिये नहीं । क्या लड़कीके घरसे भी लिया जाता
है । लड़कीको देते हैं कि उससे लेते हैं, बताओ ? संसारसे
लेनेकी इच्छा पाप है । लेनेकी इच्छा छोड़ दो तो उससे सम्बन्ध छूट जायगा और आपकी
मुक्ति हो जायगी । जीनेकी इच्छाके मूलमें कारण है—शरीरसे एकता मानना । जिस संयोगका प्रतिक्षण
वियोग हो रहा है, उस संयोगमें सद्भाव कर लिया, उसे सच्चा मान लिया—यह गलती
की । इस कारण जन्मना-मरना पड़ेगा ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘तात्विक
प्रवचन’ पुस्तकसे
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