अपने
सुखसे सुखी होना और अपने दुःखसे दुःखी होना–यह पशुता है; तथा दूसरेके सुखसे सुखी
होना और दूसरेके दुःखसे दुःखी होना–यह मनुष्यता है । अतः जबतक
दूसरेके सुखसे सुखी होने और दूसरेके दुखसे दुःखी होनेका स्वभाव नहीं बन जाता, तबतक
वह मनुष्य कहलानेके लायक नहीं है । वह आकृतिसे चाहे मनुष्य दीखे, पर वास्तवमें
मनुष्य नहीं है । जबतक खुदके सुखसे सुखी होंगे और खुदके
दुःखसे दुःखी होंगे, तबतक मनुष्यता नहीं आयेगी ।
जो अपने सुखके लिये दूसरोंकी हानि करता है, वह
मनुष्य कहलानेलायक नहीं है । मनुष्य वही होता है,
जो अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरेका हित करे, कम-से-कम दूसरेका नुकसान न करे ।
अतः यह शिक्षा ग्रहण करनी है कि हमारे द्वारा किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो । दूसरोंका दुःख कैसे मिटे–इससे भी आगे दूसरोंके हितकी दृष्टि
रखो कि दूसरोंका हित कैसे हो ? प्राणिमात्रके हितमें रति हो–‘सर्वभूतहिते रताः’ (गीता ५/१५; १२/४) । दूसरोंका हित
कितना करना है, कितना नहीं करना है–इसकी आवश्यकता ही नहीं । हमारे पास जितनी सामर्थ्य है, जितनी योग्यता है, जितनी सामग्री
है, उसीको दूसरोंके हितमें लगाना है, उतनी ही हमारी जिम्मेवारी है । सबको सुखी बना
दे–यह किसी मनुष्यकी ताकत नहीं है । यह इतनी कठिन बात है कि दुनियाके
सब-के-सब आदमी मिलकर अगर एक आदमीको भी सुख पहुँचानेकी चेष्टा करें, तो भी उसको
सुखी नहीं कर सकते । कारण कि उसमें जो धनकी, भोगोंकी,
मानकी, बड़ाईकी, आरामकी लालसा है, वह ज्यों-ज्यों धन, भोग आदि मिलेंगे,
त्यों-ही-त्यों अधिक बढ़ती जायगी–‘जिमि प्रतिलाभ
लोभ अधिकाई ।’ अधिक-से-अधिक धन आदि मिलनेपर भी वह तृप्त नहीं हो सकता । जब
सम्पूर्ण दुनिया मिलकर भी एक आदमीको सुखी नहीं कर सकती, तो एक आदमी दुनियाके
दुःखको दूर कैसे करेगा ? परन्तु ‘दूसरेको सुख कैसे हो’–यह
भाव सब बना सकते हैं, चाहे वह भाई हो या बहन हो, बालक हो या जवान हो, धनी
हो या निर्धन हो । सांसारिक चीजोंमें किसीको अधिकार मिला है, किसीको नहीं मिला है;
परन्तु हृदयसे सबका हित चाहनेका अधिकार सबको मिला है ।
इस अधिकारसे कोई भी वंचित नहीं है ।
जो अपनी शक्तिके अनुसार दूसरोंका भला
करता है, उसका भला भगवान् अपनी शक्तिके अनुसार करते हैं । वह अपनी पूरी
शक्ति लगा देता है, तो भगवान् भी अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं । जब भगवान् अपनी
शक्ति लगा देंगे, तो वह दुःखी कैसे रहेगा ? उसको कोई दुःखी कर ही नहीं सकता । वह
भगवान्को प्राप्त हो जाता है–‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव
सर्वभूतहिते रताः ।’ (गीता १२/४)
सर्वे भवन्तु
सुखिनः सर्वे सन्तु
निरामयाः ।
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
सब सुखी हो जायँ, सबके आनन्द-मंगल हो,
कभी किसीको किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो–यह जिसका भाव बन जाय, वही मनुष्य कहलानेलायक
है । जबतक वह दूसरेके दुःखसे दुःखी नहीं होता, तबतक वह मनुष्य
कहलानेलायक नहीं है । दूसरी एक बात है–जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी होता है, उसको
अपने दुःखसे दुःखी नहीं होना पड़ता । आपलोग ध्यान दें, अपने दुःखसे दुःखी उसीको
होना पड़ता है, जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी नहीं होता और दूसरोंके सुखसे सुखी नहीं
होता । वही संग्रही बनता है और अपने सुखका भोगी बनता है
। उसको सुखका अभाव रहता है, कमी रहती है । परन्तु जो दूसरोंके सुखसे सुखी होता है, उसको
सुखकी कमी रहती ही नहीं । कमी कैसे नहीं रहती ? कि उसको अपने सुखभोगकी इच्छा ही
नहीं रहती ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’ पुस्तकसे
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