।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७४,शुक्रवार
                   एकादशी-व्रत कल है
         अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)

               श्रोता–महाराजजी ! बात समझमें आती तो है, पर आकर भी नहीं आती !

स्वामीजी–भाई, बात एक ही है । वह है–सुख-भोगकी इच्छा । इसको आप छोड़ते नहीं ! सुख भोग लें और संग्रह कर लें–ये दो चीजें हैं । मेरे पास वस्तु हो जाय, रुपया हो जाय, इतना आधिपत्य हो जाय और इनसे मैं सुख भोग लूँ–यह खास बाधा है । न सुख बाधक है और न संग्रह बाधक है । सुख और संग्रहकी जो इच्छा है, यही महान् बाधक है । इस इच्छासे लाभ किसी तरहका नहीं है और नुकसान किसी तरहका बाकी नहीं है । नरक, चौरासी लाख योनियाँ, सन्ताप, जलन, चिन्ता, भय–ये सब इस इच्छामें हैं ।

श्रोता–इस इच्छाको मिटानेके लिये क्या किया जाय ?

स्वामीजी–दूसरेका हित कैसे हो ? दूसरेको सुख कैसे हो ? दूसरेका सम्मान कैसे हो ? दूसरेको आराम कैसे मिले ?–यह लगन लग जाय । जहाँ अपने सुखकी इच्छा है, उस जगह दूसरेके सुखकी इच्छा हो जाय, लगन लग जाय तो अपने सुख और संग्रहकी इच्छा मिट जायगी । न मिटे तो कहना !

जो दूसरोंके हितमें रत हैं, उनको भगवान्‌ने सगुण और निर्गुण–दोनोंकी प्राप्ति बतायी है । सगुणकी प्राप्तिमें बताया–‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।’ (गीता १२/४) और निर्गुणकी प्राप्तिमें बताया–‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः .....सर्वभूतहिते रताः ॥’ (गीता ५/२५)

यह जो आप ज्ञानमार्ग समझकर इन बातोंको टाल देते हो, कृपानाथ ! ऐसा न करो । ज्ञानमें, भक्तिमें, कर्मयोगमें–सबमें विवेक उपयोगी है । विवेकके बिना आपका साधन ठीक तरहसे चलता ही नहीं । विवेक तो उसके लिये भी उपयोगी है, जो स्वर्गकी प्राप्ति चाहता है, सकाम भावसे सिद्धि चाहता है । उसका शरीर तो यहीं रह जायगा, फिर स्वर्ग जायगा कौन ? इसलिये जो बन्धनका कारण है, उसमें भी विवेक जरूरी है । जो अपना उद्धार चाहता है, उसके लिये तो विवेक बड़ा भारी उपयोगी है । जो इसकी उपेक्षा करते हैं, वे गलती करते हैं । भगवान्‌ने तो गीताका आरम्भ ही इसीसे किया है कि शरीर और शरीरी, देह और देही दो हैं, एक नहीं है । वास्तविकता यही है । इसी वास्तविकताका अनुभव करना है । वास्तविकताका अनुभव नहीं करोगे तो और क्या अनुभव करोगे ?

श्रोता–विवेक परमात्माका स्वरूप है क्या ?

स्वामीजी–हाँ, स्वरूप हो जाता है । विवेक नाम है दो चीजोंका और परमात्मा है एक चीज । विवेक परमात्मामें परिणत हो जाता है । विवेककी जगह परमात्मा ही रह जाता है ।
       
श्रोता–विवेकको कैसे जाग्रत् करें ?

स्वामीजी–यही तो मैं माथापच्‍ची कर रहा हूँ । आप और हम मिल करके अभी कर क्या रहे हैं ? विवेकको जाग्रत् करनेकी बात ही कर रहे हैं । विवेकके लिये अभ्यास जरूरी नहीं है, विचार जरूरी है । अभ्याससे मुक्ति नहीं होती और विचारसे मुक्ति बाकी नहीं रहती ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे