(गत ब्लॉगसे आगेका)
चिन्मय सत्ता शरीरस्थ अथवा प्रकृतिस्थ हो ही नहीं सकती । वह
आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है‒ ‘नित्यः सर्वगतः’
(गीता २/२४) । वह सम्पूर्ण शरीरोंके बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता
ही हमारा स्वरूप है ।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
(गीता १३/३३)
‘हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य
इस सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण
क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ।’
सूर्यके प्रकाशमें सम्पूर्ण शुभ-अशुभ
क्रियाएँ होती हैं । सूर्यके
प्रकाशमें कोई वेदका पाठ करता है, कोई शिकार करता है । परन्तु सूर्यको उन
क्रियाओंका न तो पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य उन क्रियाओंका न तो कर्ता
बनता है, न भोक्ता ही बनता है । इसी तरह आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण
शरीरोंको सत्ता-स्फूर्ति देता है, पर वास्तवमें वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही
होता है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
(गीता १८/१७)
‘जिसका अहंकृतभाव (मैं
कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन
सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’
जैसे गंगाजीमें कोई डूबकर मर जाता है
तो गंगाजीको पाप नहीं लगता और कोई स्नान आदि करता है तो गंगाजीको पुण्य नहीं लगता
। कारण कि गंगाजीमें अहंकृतभाव (कर्तृत्व) और बुद्धिकी लिप्तता (भोक्तृत्व) नहीं
है ।
कर्तृत्व-भोक्तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वरूपमें नहीं ।
इसलिये अपने स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा
अनुभव करता है‒‘नैव किञ्चित्-करोमीति युक्तो मन्येत
तत्त्ववित् (गीता ५/८) । खाने-पीने, सोने-जगने, नौकरी-धन्धा करने आदि
सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक
क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं । स्वरूपमें कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है ।
इसलिये साधकको चाहिये कि वह शास्त्रविहित लौकिक तथा
पारमार्थिक क्रियाओंका बाहरसे त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने
अर्थात् उनको अपने द्वारा होनेवाली और अपने लिये न माने । क्रियाका महत्त्व
वास्तवमें जड़ताका ही महत्त्व है । क्रियाकी मुख्यता होनेपर वर्षोंतक साधन करनेपर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं
दीखता । इसलिये साधकके अन्तःकरणमें क्रियाका महत्त्व न होकर
चेतन-विभागका ही महत्त्व होना चाहिये । साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरीरके
द्वारा ही होती है । साधकका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई
क्रिया नहीं होती । क्रिया और पदार्थ संसारका स्वरूप है ।
कर्तृत्व-भोक्तृत्व अपनेमें नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानके
कारण अपनेमें माने हुए हैं । अपनेमें माननेपर भी वास्तवमें हम
कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित ही हैं‒ ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय
न करोति न लिप्यते’ । तात्पर्य है कि शरीरमें अपनी स्थिति माननेपर भी
वास्तवमें हम शरीरसे असंग हैं । अपनेमें बन्धनकी मान्यता
करनेपर भी वास्तवमें हम मुक्त ही हैं । इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये बहुत
ही आवश्यक है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘एक नयी बात’ पुस्तकसे
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