।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
            भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं

एक बहुत ही मार्मिक बात है, जिसकी तरफ साधकोंका ध्यान बहुत कम है । यदि उसपर विशेष ध्यान दिया जाय तो जल्दी-से-जल्दी बहुत बड़ा लाभ हो सकता है ।

साधकोंके भीतर एक गलत धारणा दृढ़तासे जमी हुई है कि जैसे संसारका कोई काम करते-करते होता है, तत्काल नहीं होता, वैसे ही अर्थात् उसी रीतिसे भगवान्‌की प्राप्ति भी साधन करते-करते होती है, तत्काल नहीं होती । ऐसी धारणा ही भगवत्प्राप्तिमें देर कर रही है । जैसे, यदि बालक माँके पीछे पड़ जाय कि मुझे तो अभी ही लड्‌डू दे तो लड्‌डू बना हुआ नहीं होनेपर माँ उसे तत्काल कैसे बनाकर दे देगी ? यद्यपि माँका अपने बालकपर बड़ा स्नेह, बड़ा प्यार है; क्योंकि उसके लिये अपने बालकसे बढ़कर और कौन है ? परन्तु फिर भी लड्‌डू बनानेमें समय तो लगेगा ही । ऐसे ही किसी स्थानपर जाना हो, किसी वस्तुका सुधार करना हो, किसी वस्तुको बदलना हो‒इन सबमें समयकी अपेक्षा है । तात्पर्य यह है कि सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेमें तो समय लगता है, पर भगवानको प्राप्त करनेमें समय नहीं लगता‒यह एक बहुत मार्मिक बात है ।

हम सब-के-सब परमात्मरूप कल्पवृक्षकी छायामें रहते हैं । इस कल्पवृक्षकी छायामें रहते हुए यदि हम ऐसा भाव रखते हैं कि बहुत साधन करनेपर भविष्यमें कभी भगवत्प्राप्ति होगी, तो अपनी धारणाके अनुसार भगवान् भविष्यमें ही कभी मिलेंगे । यदि हम ऐसा भाव बना लें कि भगवान् तो अभी मिलेंगे, तो वे अभी ही मिल जायँगे । भगवान्‌ने स्वयं कहा है‒

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
                                                 (गीता ४ । ११)

‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’

अतएव भगवान्‌की प्राप्तिमें भविष्य नहीं है । हमलोगोंकी भावनामें ही भविष्य है ।

इस विषयमें एक बात विशेष महत्त्वकी है कि संसारके जितने भी काम हैं, सब-के-सब बनने और बिगड़नेवाले हैं । बननेवाले काममें देर लगती है, परन्तु बने-बनाये (विद्यमान) काममें देर कैसे लग सकती है ? परमात्मा भी विद्यमान हैं और हम भी विद्यमान हैं । उनके और हमारे बीच देश-काल आदिका कोई भी व्यवधान नहीं है; फिर परमात्माकी प्राप्तिमें देर क्यों लगनी चाहिये ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे