भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं
एक बहुत ही मार्मिक बात है,
जिसकी तरफ साधकोंका ध्यान बहुत कम है । यदि उसपर विशेष ध्यान
दिया जाय तो जल्दी-से-जल्दी बहुत बड़ा लाभ हो सकता है ।
साधकोंके भीतर एक गलत धारणा दृढ़तासे जमी हुई है कि
जैसे संसारका कोई काम करते-करते होता है,
तत्काल नहीं होता, वैसे
ही अर्थात् उसी रीतिसे भगवान्की प्राप्ति भी साधन करते-करते होती है, तत्काल
नहीं होती । ऐसी धारणा ही भगवत्प्राप्तिमें देर कर रही है । जैसे, यदि बालक माँके पीछे पड़ जाय कि मुझे तो अभी ही लड्डू दे तो
लड्डू बना हुआ नहीं होनेपर माँ उसे तत्काल कैसे बनाकर दे देगी ?
यद्यपि माँका अपने बालकपर बड़ा स्नेह,
बड़ा प्यार है; क्योंकि उसके लिये अपने बालकसे बढ़कर और कौन है ?
परन्तु फिर भी लड्डू बनानेमें समय तो लगेगा ही । ऐसे ही किसी
स्थानपर जाना हो, किसी वस्तुका सुधार करना हो,
किसी वस्तुको बदलना हो‒इन सबमें समयकी अपेक्षा है । तात्पर्य
यह है कि सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेमें तो समय लगता है, पर
भगवानको प्राप्त करनेमें समय नहीं लगता‒यह एक बहुत मार्मिक बात है ।
हम सब-के-सब परमात्मरूप कल्पवृक्षकी छायामें रहते हैं । इस कल्पवृक्षकी
छायामें रहते हुए यदि हम ऐसा भाव रखते हैं कि बहुत साधन करनेपर भविष्यमें कभी भगवत्प्राप्ति
होगी, तो अपनी धारणाके अनुसार भगवान् भविष्यमें ही कभी मिलेंगे । यदि
हम ऐसा भाव बना लें कि भगवान् तो अभी मिलेंगे,
तो वे अभी ही मिल जायँगे । भगवान्ने स्वयं कहा है‒
ये यथा
मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
(गीता ४ । ११)
‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’
अतएव भगवान्की प्राप्तिमें भविष्य नहीं है । हमलोगोंकी भावनामें
ही भविष्य है ।
इस विषयमें एक बात विशेष महत्त्वकी है कि संसारके जितने भी काम
हैं, सब-के-सब बनने और बिगड़नेवाले हैं । बननेवाले काममें देर लगती है,
परन्तु बने-बनाये (विद्यमान) काममें देर कैसे लग सकती है ?
परमात्मा भी विद्यमान हैं और हम भी विद्यमान हैं
। उनके और हमारे बीच देश-काल आदिका कोई भी व्यवधान नहीं है; फिर
परमात्माकी प्राप्तिमें देर क्यों लगनी चाहिये ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे |