।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७४, रविवार
            भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

भगवान् सब समयमें सब देश (स्थान)-में, सब वस्तुओंमें तथा सब प्राणियोंमें विद्यमान हैं । समय, देश, वस्तु, प्राणी आदि सब-के-सब बदलनेवाले हैं, अर्थात् निरन्तर नहीं रहते । इसके विपरीत हम (स्वयं) भी निरन्तर रहनेवाले हैं और भगवान् भी । ऐसे भगवान्‌को प्राप्त करनेके लिये हमने ऐसी धारणा बना ली है कि जब संसारका कोई साधारण काम भी शीघ्र नहीं होता, तब जो सबसे महान् हैं, उन भगवान्‌की प्राप्तिका कार्य शीघ्र कैसे हो जायगा ? परन्तु वास्तवमें सबसे ऊँची वस्तु सबसे सहज-सुलभ भी होती है । भगवान् सबके लिये हैं और सबको प्राप्त हो सकते हैं । स्वयं हमने ही भगवान्‌की प्राप्तिमें आड़ लगा रखी है कि वे वैरागी-त्यागी पुरुषोंको मिलते हैं, हम गृहस्थियोंको कैसे मिलेंगे ? वे जंगलमें रहनेवालोंको मिलते हैं, हम शहरमें रहनेवालोंको कैसे मिलेंगे ? कोई अच्छे गुरु नहीं मिलेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? कोई बढ़िया साधन नहीं करेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? आजकल भगवत्प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले कोई अच्छे महात्मा भी नहीं रहे तो हमें भगवान् कैसे मिलेंगे ? हमारे भाग्यमें ही नहीं है तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? हम तो अधिकारी ही नहीं हैं तो भगवान् हमें कैसे मिलेंगे ? हमारे कर्म ही ऐसे नहीं है तो भगवान् हमें कैसे मिलेंगे ?‒इस प्रकार न जाने कितनी आड़े हमने स्वयं ही लगा रखी हैं । भगवान्‌को हमने इन आड़ोंके, पहाड़ोंके ही नीचे दबा दिया है ! ऐसी स्थितिमें बेचारे भगवान् क्या करें ? हमें कैसे मिलें ?

पार्वतीने ‘तप करनेसे शिवजी मिलेंगे’, ऐसा भाव रखकर स्वयं ही शिवजीकी प्राप्तिमें आड़ लगा दी थी, इसी कारण उन्हें तप करना पड़ा[*] । तपस्याका भाव भीतर रहनेके कारण तप करनेसे ही शिवजी मिले । इसी प्रकार भावके कारण ही ध्रुवको छः मासके तपके बाद भगवान् मिले । भगवान्‌के मिलनेमें वस्तुतः कोई देर नहीं लगी । जिस समय ऐसा भाव हुआ कि अब मैं भगवान्‌के बिना रह नहीं सकता, उसी समय भगवान् मिल गये ।



   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे



[*] पार्वतीके मनमें पहले ही यह भाव हो गया था कि शिवजीकी प्राप्ति कठिन है‒

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥
                                                           (मानस १ । ६८ । ३)

बादमें देवर्षि नारदने कह दिया कि तप करनेसे ही शिवजी मिल सकते हैं‒

दुराराध्य  पै  अहहिं महेसू । आसुतोष   पुनि   किएँ   कलेसू ॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥
                                                       (मानस १ । ७० । २-३)

माता-पितासे भी पार्वतीको तप करनेकी ही प्रेरणा मिली‒

अब जौं तुम्हहि  सुता  पर  नेहू । तौ  अस  जाइ सिखावनु देहू ॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटिहि कलेसू ॥
                                                           (मानस १ । ७२ । १)

स्वप्नमें भी पार्वतीको तप करनेकी ही शिक्षा मिली‒

करहि जाइ  तपु  सैलकुमारी । नारद  कहा  सो  सत्य  बिचारी ॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥
                                                           (मानस १ । ७३ । १)

इन्हीं सब कारणोंसे पार्वतीके मनमें यह भाव दृढ़ हो गया कि तप करनेसे ही शिवजी मिलेंगे, अन्यथा नहीं ।