(शेष आगेके ब्लॉगमें)
भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्रतासे,
स्वाभाविक हैं । सांसारिक पदार्थोंके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक
नहीं है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि सब पदार्थ निरन्तर बहे जा रहे हैं । उनके साथ हमारा
कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवान् ही हमारे हैं । बच्चेमें कोई योग्यता,
विद्वत्ता, शूरवीरता आदि नहीं होती,
केवल उसमें ‘माँ मेरी है’‒ऐसा माँमें मेरापन होता है । इस मेरापनमें
बड़ी भारी शक्ति है, जो भगवानको भी खींच सकती है । इसीके कारण भक्तराज प्रह्लादने पत्थरसे भी भगवान्को निकाल
लिया‒
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥
(कवितावली
१२७)
संसारका हमसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । शरीर,
कुटुम्ब, धन-सम्पत्ति आदि सब पदार्थ पहले नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे
। दृश्यमात्र निरन्तर अदर्शनको प्राप्त हो रहा है । कोई पदार्थ साठ वर्षतक रहनेवाला
हो तो एक वर्ष बीत जानेपर वह उन्सठ वर्षका ही रहेगा;
क्योंकि वह निरन्तर नाशकी ओर जा रहा है । हम नहीं रहनेवाले सांसारिक
पदार्थोंको अपना मानते हैं और सदा रहनेवाले परमात्माको अपना नहीं मानते,
यह बड़ी भारी भूल है । भगवान् वर्तमानमें
हैं और हमारे हैं‒इस बातपर हम दृढ़तापूर्वक डट जायँ, तो
भगवान् वर्तमानमें ही मिल जायँगे । केवल उत्कट अभिलाषा[*] ' होनेकी देर है, भगवान्के मिलनेमें देर नहीं है । अपने भावके अनुसार चाहे आज
भगवान्को प्राप्त कर लो, चाहे भविष्यमें-वर्षो या जन्मोंके बाद !
[ गीताभवन वटवृक्षके नीचे ज्येष्ठ कृष्ण ५, वि॰ सं॰ २०३५, दिनांक
२७॰ ५॰ १९७८ को प्रातः ८ बजे दिया गया प्रवचन ]
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे
[*] भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् करनेका उपाय है‒सम्पूर्ण
सांसारिक इच्छाओंका त्याग करना और दूसरे हमसे जो न्याययुक्त इच्छा करें,
उसे यथाशक्ति पूरी कर देना ।
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