।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७४,शुक्रवार
                 भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्रतासे, स्वाभाविक हैं । सांसारिक पदार्थोंके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि सब पदार्थ निरन्तर बहे जा रहे हैं । उनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवान् ही हमारे हैं । बच्चेमें कोई योग्यता, विद्वत्ता, शूरवीरता आदि नहीं होती, केवल उसमें ‘माँ मेरी है’ऐसा माँमें मेरापन होता है । इस मेरापनमें बड़ी भारी शक्ति है, जो भगवानको भी खींच सकती है । इसीके कारण भक्तराज प्रह्लादने पत्थरसे भी भगवान्‌को निकाल लिया‒

                      प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥
                                                              (कवितावली १२७)

संसारका हमसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । शरीर, कुटुम्ब, धन-सम्पत्ति आदि सब पदार्थ पहले नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे । दृश्यमात्र निरन्तर अदर्शनको प्राप्त हो रहा है । कोई पदार्थ साठ वर्षतक रहनेवाला हो तो एक वर्ष बीत जानेपर वह उन्सठ वर्षका ही रहेगा; क्योंकि वह निरन्तर नाशकी ओर जा रहा है । हम नहीं रहनेवाले सांसारिक पदार्थोंको अपना मानते हैं और सदा रहनेवाले परमात्माको अपना नहीं मानते, यह बड़ी भारी भूल है । भगवान् वर्तमानमें हैं और हमारे हैं‒इस बातपर हम दृढ़तापूर्वक डट जायँ, तो भगवान् वर्तमानमें ही मिल जायँगे । केवल उत्कट अभिलाषा[*] ' होनेकी देर है, भगवान्‌के मिलनेमें देर नहीं है । अपने भावके अनुसार चाहे आज भगवान्‌को प्राप्त कर लो, चाहे भविष्यमें-वर्षो या जन्मोंके बाद !

[ गीताभवन वटवृक्षके नीचे ज्येष्ठ कृष्ण ५, वि सं २०३५, दिनांक २७ १९७८ को प्रातः ८ बजे दिया गया प्रवचन ]

                           नारायण !     नारायण !     नारायण !    नारायण !

‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे


[*] भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् करनेका उपाय है‒सम्पूर्ण सांसारिक इच्छाओंका त्याग करना और दूसरे हमसे जो न्याययुक्त इच्छा करें, उसे यथाशक्ति पूरी कर देना ।