भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?
(१)
परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है । इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं
है । परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे,
साथमें दूसरी कोई भी चाहना न रहे । कारण कि परमात्माके समान
दूसरा कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अनन्य हैं,
ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये । सांसारिक भोगोंके
प्राप्त होनेमें तीन बातें होनी जरूरी हैं‒इच्छा,
उद्योग और प्रारब्ध । पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेकी
‘इच्छा’ होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्तिके लिये ‘कर्म’
करना चाहिये । कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्ति तब होगी,
जब उसके मिलनेका ‘प्रारब्ध’ होगा । अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो
इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी । इसलिये उद्योग तो करते हैं
नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा ! परन्तु परमात्माकी
प्राप्ति इच्छामात्रसे होती है । उसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरूरत नहीं है । परमात्माके
मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं,
नफा-ही-नफा होता है ।
(२)
यह एक बड़ा भारी वहम है कि ‘करने’
से ही परमात्मप्राप्ति होगी । अतः भजन करो,
जप करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, समाधि लगाओ । इस प्रकार ‘करने’
पर ही बड़ा भारी जोर है । बातोंसे कुछ
नहीं होगा, करनेसे होगा‒यह धारणा रोम-रोममें बैठी हुई है । परन्तु मैं इससे विलक्षण बात कहता हूँ कि ‘है’‒रूपसे जो सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता है,
जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता,
उसीमें ही मैं हूँ । ‘मैं’
और वह ‘है’ एक ही है । जब ऐसा ठीक तरहसे जान लिया तो फिर क्या करना रहा
? क्या जानना रहा ? क्या पाना रहा ? मैं नित्य-निरन्तर परमात्मामें हूँ‒यह असली शरणागति
है । उस सर्वत्र परिपूर्ण ‘है’
(परमात्मतत्व)-से अलग कोई हो ही नहीं सकता । उस ‘है’
की ही प्राप्ति करनी है,
‘नहीं’ की प्राप्ति नहीं करनी है । ‘नहीं’
की प्राप्ति होगी तो अन्तमें ‘नहीं’
ही रहेगा । जो नहीं है,
वह प्राप्त होनेपर भी रहेगा कैसे ?
इसलिये ‘है’ की
ही प्राप्ति करनी है और उस ‘है’ की प्राप्ति नित्य-निरन्तर है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे
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