।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
    मार्गशीर्ष अमावस्या, वि.सं.-२०७४,शनिवार
             भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?



भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?

(१)

परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है । इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है । परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे, साथमें दूसरी कोई भी चाहना न रहे । कारण कि परमात्माके समान दूसरा कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये । सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें तीन बातें होनी जरूरी हैं‒इच्छा, उद्योग और प्रारब्ध । पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेकी ‘इच्छा’ होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्तिके लिये ‘कर्म’ करना चाहिये । कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्ति तब होगी, जब उसके मिलनेका ‘प्रारब्ध’ होगा । अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी । इसलिये उद्योग तो करते हैं नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा ! परन्तु परमात्माकी प्राप्ति इच्छामात्रसे होती है । उसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरूरत नहीं है । परमात्माके मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है ।

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यह एक बड़ा भारी वहम है कि ‘करने’ से ही परमात्मप्राप्ति होगी । अतः भजन करो, जप करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, समाधि लगाओ । इस प्रकार ‘करने’ पर ही बड़ा भारी जोर है । बातोंसे कुछ नहीं होगा, करनेसे होगा‒यह धारणा रोम-रोममें बैठी हुई है । परन्तु मैं इससे विलक्षण बात कहता हूँ कि ‘है’रूपसे जो सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उसीमें ही मैं हूँ । ‘मैं’ और वह ‘है’ एक ही है । जब ऐसा ठीक तरहसे जान लिया तो फिर क्या करना रहा ? क्या जानना रहा ? क्या पाना रहा ? मैं नित्य-निरन्तर परमात्मामें हूँ‒यह असली शरणागति है । उस सर्वत्र परिपूर्ण ‘है’ (परमात्मतत्व)-से अलग कोई हो ही नहीं सकता । उस ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, ‘नहीं’ की प्राप्ति नहीं करनी है । ‘नहीं’ की प्राप्ति होगी तो अन्तमें ‘नहीं’ ही रहेगा । जो नहीं है, वह प्राप्त होनेपर भी रहेगा कैसे ? इसलिये ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है और उस ‘है’ की प्राप्ति नित्य-निरन्तर है !



    (शेष आगेके ब्लॉगमें)                 
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे