भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?
(गत ब्लॉगसे आगेका)
(३)
जो चीज जितनी श्रेष्ठ और आवश्यक होती है, उतनी
ही वह सस्ती मिलती है । हीरा-पन्ना
हमें उम्रभर देखनेको न मिलें तो भी हम जी सकते हैं,
इसलिये वे बहुत महँगे मिलते हैं । अन्न उससे भी सस्ता मिलता
है; क्योंकि अन्नके बिना हम जी नहीं सकते । अन्नसे भी जल ज्यादा आवश्यक है,
इसलिये वह अन्नसे भी सस्ता मिलता है । जलके बिना तो हम कुछ रह
सकते हैं, पर हवाके बिना तो रह ही नहीं सकते,
इसलिये हवा मुफ्तमें मिलती है तथा सब जगह मिलती है । परन्तु
परमात्मा उससे भी सस्ते हैं ! हवा कहीं कम मिलती है,
कहीं ज्यादा; कभी तेज चलती है, कभी मन्द; परन्तु परमात्मा सब जगह तथा सब समय समान रीतिसे ज्यों-के-त्यों
परिपूर्ण हैं, और वे सबके अपने हैं । उनके बिना कोई भी चीज नहीं है । पृथ्वी,
जल, हवा, अग्नि और आकाश तो सदा नहीं रहेंगे,
पर परमात्मा सदा ज्यों-के-त्यों रहेंगे । अतः परमात्मा सबसे आवश्यक हैं और सबसे सस्ते हैं । आपने सांसारिक चीजोंको
ज्यादा महत्व दे रखा है, इसलिये परमात्मा दीखते नहीं । इनको इतना महत्त्व
मत दो, परमात्मा दीख जायँगे, उनकी
प्राप्ति हो जायगी ।
(४)
निर्माण और खोज‒दोनोंमें बहुत अन्तर है । निर्माण
उस वस्तुका होता है, जिसका पहलेसे अभाव होता है और खोज उस वस्तुकी होती
है, जो पहलेसे ही विद्यमान होती है । परमात्मा नित्यप्राप्त
और स्वतःसिद्ध हैं, इसलिये उनकी खोज होती है, निर्माण
नहीं होता । जब साधक परमात्माकी
सत्ताको स्वीकार करता है, तब खोज होती है । खोज करनेके दो प्रकार हैं‒एक तो कण्ठी कहीं
रखकर भूल जायँ तो हम जगह-जगह उसकी खोज करते हैं;
और दूसरा, कण्ठी गलेमें ही हो,
पर वहम हो जाय कि कण्ठी खो गयी तो हम जगह-जगह उसकी खोज करते
हैं । परमात्माकी खोज गलेमें पड़ी कण्ठीकी खोजके समान है । वास्तवमें परमात्मा खोया
नहीं है । संसारमें अपने रागके कारण परमात्माकी तरफ दृष्टि नहीं जाती । उधर दृष्टि
न जाना ही उसका खोना है । तात्पर्य है कि जिस परमात्माको हम चाहते हैं और जिसकी हम
खोज करते हैं, वह परमात्मा नित्य-निरन्तर अपनेमें ही मौजूद है ! परन्तु संसार
अपनेमें नहीं है । जो अपनेमें है, उसकी
खोज करनेसे परिणाममें वह मिल जाता है । परन्तु जो अपनेमें नहीं है, उसकी
खोज करनेसे परिणाममें वह मिलता नहीं;
क्योंकि वास्तवमें उसकी सत्ता ही नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे
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