।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७४,सोमवार
             भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?



भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)

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प्रकृतिसे तो हमारा निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है । कोई भी अवस्था निरन्तर नहीं रहती । परन्तु सत्-तत्त्वसे किसीका भी सम्बन्ध-विच्छेद कभी हुआ नहीं, हो सकता नहीं और है नहीं । फिर उसके लिये किसी परिश्रमकी क्या आवश्यकता है ? इसलिये शास्त्रमें आया‒‘सन्मात्रं सुगमं नृणाम्’ अर्थात् सत्तामात्रकी प्राप्ति मनुष्योंके लिये बहुत सुगम है । वास्तवमें उसकी प्राप्तिको सुगम कहना भी नहीं बनता । सुगमता-कठिनता तो अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिमें होती है । जो नित्यप्राप्त है, उसके लिये क्या सुगमता और क्या कठिनता ? जैसे‒‘मैं हूँ’ इस प्रकार अपनी सत्ताका अनुभव सभीको है । वस्तु, परिस्थिति, अवस्था आदिके अभावका अनुभव सबको होता है, पर स्वयंके अभावका अनुभव किसीको कभी नहीं होता, प्रत्युत सबको सदा ही अपने भावका अनुभव होता है । साधकको चाहिये कि वह ‘मैं हूँ’इसमें ‘मैं’ को आदर न देकर ‘हूँ’ को अर्थात् निर्विकार नित्य सत्ताको आदर दे । ‘हूँ’ को आदर देनेसे ‘मैं’ (अहम्) मिट जायगा और ‘है’ रह जायगा ।

(६)

बोध तो स्वतः प्राप्त है, पर हमारे पुराने संस्कार, पुरानी मान्यताएँ उसमें बाधक हो रही हैं, जो कि असत्-रूप हैं और सत्तारूपसे मानी हुई हैं; जैसे‒सब काम धीरे-धीरे, समय पाकर होते हैं, फिर बोध तत्काल कैसे हो जायगा ? अनादिकालका अज्ञान इतनी जल्दी कैसे मिट जायगा ? आदि-आदि । यह सब हमारा वहम है । एक गुफामें लाखों वर्षोंसे अँधेरा हो और उसमें दीपक जला दिया जाय तो क्या अँधेरा दूर होनेमें भी लाखों वर्ष लगेंगे ?

(७)

हम परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, तत्वज्ञान चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं, भगवान्‌के दर्शन चाहते हैं, भगवत्प्रेम चाहते हैं; परन्तु हमारी इस चाहकी सिद्धिमें एक बहुत बड़ी बाधा हमारी यह मान्यता है कि ‘भविष्यमें काफी समयके बाद भगवत्प्रेम होगा; समय लगेगा, तब कहीं भगवान् दर्शन देंगे; समय पाकर ही तत्वज्ञान होगा; परमात्माकी प्राप्तिमें तो समय लगेगा’ इत्यादि । यह जो भविष्यकी आशा है कि फिर होगा, वही परमात्मप्राप्तिमें सबसे बड़ी बाधा है !


सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये तो भविष्यकी आशा करना उचित है; क्योंकि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं; परन्तु सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्तिमें विद्यमान हैं, उनकी प्राप्तिमें भविष्यका क्या काम ? इस तथ्यकी ओर प्रायः साधकोंका ध्यान ही नहीं जाता । वे यही मान बैठते हैं कि ‘इतना साधन करेंगे, इतना नामजप करेंगे, ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी, इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा, इतना वैराग्य होगा, भगवान्‌में इतना प्रेम होगा, ऐसी अवस्था होगी, ऐसी योग्यता होगी, तब कहीं परमात्माकी प्राप्ति होगी !’ इस प्रकार अनेक आड़ें (रुकावटें) साधकोंने स्वयं ही लगा रखी हैं । यही महान् बाधा है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)                 
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे