भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?
(गत ब्लॉगसे आगेका)
(८)
आपने परमात्माकी प्राप्तिको कठिन मान रखा है,
पर वास्तवमें यह कठिन नहीं है । परमात्मप्राप्ति
कठिन है‒आपकी इस मान्यताके कारण परमात्मप्राप्ति कठिन है, और
इस मान्यताको छुड़ाना कठिन है ! परमात्मा तो अपने हैं । अपनी माँकी गोदीमें जानेमें
क्या कठिनता है ?
इसमें क्या अपनी किसी योग्यता,
विद्या, बुद्धि, बल, धन, आदिकी जरूरत पड़ती है ?
केवल अपनेपनकी जरूरत है । संसारमें तिल-जितनी चीज भी अपनी नहीं
है । संसारकी चीजको अपनी मानकर भगवान्को कठिन मान लिया ! अपने केवल भगवान् हैं,
जो सदा हमारे साथमें रहते हैं । आप स्वर्ग,
नरक, चौरासी लाख योनियाँ आदि कहीं जाओ,
भगवान् सदा साथमें रहते हैं‒‘सर्वस्य
चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके
हृदयमें स्थित हूँ’; ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’
‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित आत्मा
हूँ’ । परमात्माके सिवाय और कोई चीज आपके साथ रहती ही नहीं,
और भगवान् आपका पिण्ड छोड़ते नहीं ! ऐसा कोई समय नहीं है,
जिस समय भगवान् आपके साथ न हों । परन्तु उस तरफ आपकी दृष्टि
नहीं रहती । भगवान् सबके साथ हर समय रहते हैं और बड़ी कृपा
करके रहते हैं ।
(९)
पण्ढरपुरमें चातुर्मास हुआ था । उसमें मैंने एक दिन कह दिया
कि तत्त्वकी प्राप्ति तो बड़ी सरल बात है ! इसको सुनकर कुछ लोग कहने लगे कि तुकारामजी
महाराजने ऐसा-ऐसा कहा है, तत्त्वप्राप्तिमें तो कठिनता है । तब मैंने एक बात कही कि मैं
मराठी जानता नहीं, महाराष्ट्रके सन्तोंकी वाणी मैंने पढ़ी नहीं;
परन्तु मेरी एक धारणा है कि ज्ञानेश्वरजी,
तुकारामजी आदि सन्तोंको भगवत्प्राप्ति हुई थी,
वे तत्त्वज्ञ पुरुष थे । तत्त्वज्ञ पुरुषके भीतर यह भाव रह सकता
ही नहीं कि तत्त्वप्राप्ति कठिन है । अतः उनकी वाणीमें ‘तत्त्वकी प्राप्ति सुगमतासे
होती है’‒यह बात नहीं आये, ऐसा हो ही नहीं सकता ! इतनेमें एक आदमी बोल गया वाणी कि ऐसे
सुगम लिखा है उसमें ! लिखे बिना रह सकते नहीं । जो वास्तविक बात है,
उसको वे कैसे छोड़ देंगे ?
तत्त्वको बनाना थोड़े ही है, वह
तो ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । फिर उसकी प्राप्तिमें कठिनता किस बातकी ?
(१०)
परमात्मतत्त्व सब देशमें है,
सब कालमें है, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है,
सम्पूर्ण वस्तुओंमें है,
सम्पूर्ण घटनाओंमें है,
सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है,
सम्पूर्ण क्रियाओंमें है । वह सबमें एक रूपसे,
समान रीतिसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । अब उसको प्राप्त करना
कठिन है तो सुगम क्या होगा ? जहाँ चाहो, वहीं प्राप्त कर लो !
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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