।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७४,मंगलवार
             भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?



भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)

(८)

आपने परमात्माकी प्राप्तिको कठिन मान रखा है, पर वास्तवमें यह कठिन नहीं है । परमात्मप्राप्ति कठिन है‒आपकी इस मान्यताके कारण परमात्मप्राप्ति कठिन है, और इस मान्यताको छुड़ाना कठिन है ! परमात्मा तो अपने हैं । अपनी माँकी गोदीमें जानेमें क्या कठिनता है ? इसमें क्या अपनी किसी योग्यता, विद्या, बुद्धि, बल, धन, आदिकी जरूरत पड़ती है ? केवल अपनेपनकी जरूरत है । संसारमें तिल-जितनी चीज भी अपनी नहीं है । संसारकी चीजको अपनी मानकर भगवान्‌को कठिन मान लिया ! अपने केवल भगवान् हैं, जो सदा हमारे साथमें रहते हैं । आप स्वर्ग, नरक, चौरासी लाख योनियाँ आदि कहीं जाओ, भगवान् सदा साथमें रहते हैं‒‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ’; ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’ ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित आत्मा हूँ’ परमात्माके सिवाय और कोई चीज आपके साथ रहती ही नहीं, और भगवान् आपका पिण्ड छोड़ते नहीं ! ऐसा कोई समय नहीं है, जिस समय भगवान् आपके साथ न हों । परन्तु उस तरफ आपकी दृष्टि नहीं रहती । भगवान् सबके साथ हर समय रहते हैं और बड़ी कृपा करके रहते हैं ।

(९)

पण्ढरपुरमें चातुर्मास हुआ था । उसमें मैंने एक दिन कह दिया कि तत्त्वकी प्राप्ति तो बड़ी सरल बात है ! इसको सुनकर कुछ लोग कहने लगे कि तुकारामजी महाराजने ऐसा-ऐसा कहा है, तत्त्वप्राप्तिमें तो कठिनता है । तब मैंने एक बात कही कि मैं मराठी जानता नहीं, महाराष्ट्रके सन्तोंकी वाणी मैंने पढ़ी नहीं; परन्तु मेरी एक धारणा है कि ज्ञानेश्वरजी, तुकारामजी आदि सन्तोंको भगवत्प्राप्ति हुई थी, वे तत्त्वज्ञ पुरुष थे । तत्त्वज्ञ पुरुषके भीतर यह भाव रह सकता ही नहीं कि तत्त्वप्राप्ति कठिन है । अतः उनकी वाणीमें ‘तत्त्वकी प्राप्ति सुगमतासे होती है’यह बात नहीं आये, ऐसा हो ही नहीं सकता ! इतनेमें एक आदमी बोल गया वाणी कि ऐसे सुगम लिखा है उसमें ! लिखे बिना रह सकते नहीं । जो वास्तविक बात है, उसको वे कैसे छोड़ देंगे ? तत्त्वको बनाना थोड़े ही है, वह तो ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । फिर उसकी प्राप्तिमें कठिनता किस बातकी ?

(१०)

परमात्मतत्त्व सब देशमें है, सब कालमें है, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है, सम्पूर्ण वस्तुओंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है । वह सबमें एक रूपसे, समान रीतिसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा ? जहाँ चाहो, वहीं प्राप्त कर लो !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे