।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
      पौष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
  भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय


भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)

६. भगवान्‌की कृपाका आश्रय लेना

(४)

भगवान्‌की प्राप्ति केवल भगवान्‌की कृपासे ही होती है । वह कृपा तब प्राप्त होती है, जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य, समय, समझ, सामग्री आदिको भगवान्‌के सर्वथा अर्पण करके अपनेमें सर्वथा निर्बलता, अयोग्यताका अनुभव करता है अर्थात् अपने बल, योग्यता आदिका किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं करता । इस प्रकार जब वह सर्वथा निर्बल होकर अपने-आपको भगवान्‌के सर्वथा समर्पित करके अनन्यभावसे भगवान्‌को पुकारता है, तब भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं ।

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अपना उद्धार होगा, कल्याण होगा, परमात्माकी प्राप्ति होगी, जीवन्मुक्ति होगी‒यह सब वास्तवमें कृपासे होगा । यह एकदम सच्ची बात है । कृपासे जो काम होता है, वह अपनी चेष्टासे नहीं होता, यह मैंने करके देखा है । इसलिये भगवान्‌की कृपाका भरोसा रखो । कृपा होगी उत्कण्ठासे । जोरकी प्यास होती है तो पानी मिलता है । कैसे मिलता है ? इसका पता नहीं । ऐसे ही हमारी कल्याणकी उत्कण्ठा होती है तो कल्याण होता है । होता है भगवान्‌की कृपासे । कैसे होता है, यह बात भगवान् ही जानते हैं । आप सब कृपाका आश्रय लें और कृपासे ही हमारा कल्याण होगा‒यह विश्वास भीतर बढ़ाएँ । जितना अधिक विश्वास होगा, उतनी आपको शान्ति मिलेगी । भगवान्‌की कृपापर विश्वास होनेसे शान्ति मिलती है, इसमें सन्देहकी बात नहीं है । सिवाय भगवान्‌की कृपाके कोई बल लगाकर अपना कल्याण कर ले, यह हाथकी बात नहीं है । कृपा कैसे होती है‒इसका कुछ पता नहीं ! उत्कण्ठा ज्यादा दीखती है, काम नहीं होता ! उत्कण्ठा कम दीखती है, काम हो जाता है ! इस विषयमें हमारी अक्ल काम नहीं करती ! शंकराचार्यजीने लिखा है‒‘किसीपर कृपा करते समय भगवान् ऐसा विचार नहीं करते कि यह जाति, रूप, धन और आयुसे उत्तम है या अधम ? स्तुत्य है या निन्द्य ? यह अन्तरात्मा (श्रीकृष्ण)-रूप महामेघ आन्तरिक भावोंका ही भोक्ता है । मेघ क्या वर्षाके समय इस बातका विचार करता है कि यह खैर है या चम्पा ? (प्रबोधसुधाकर २५२-२५३) । जहाँ जलकी जरूरत नहीं है, वहाँ (समुद्र आदिमें) भी मेघ बरस जाता है ! इसलिये आपलोगोंसे प्रार्थना है कि कृपापर विश्वास रखो । ब्रह्माजीके वचन हैं‒

तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो  भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
                                              (श्रीमद्भागवत १० । १४ । ८)


जो मनुष्य प्रतिक्षण आपकी कृपाको ही भलीभाँति देखता रहता है और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ सुख-दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है तथा जो मन, वाणी तथा शरीरसे आपको नमस्कार करता रहता है, वह वैसे ही आपके परमपदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे