भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय
(गत ब्लॉगसे आगेका)
८. भगवान्को अपना मानना
(१७)
एकदम सच्ची बात है कि शरीर अपने साथ नहीं रहेगा । जो चीज अपनी नहीं है, वह
अपने साथ कैसे रहेगी ?
भगवान् अपने हैं, वे अपनेसे दूर कैसे हो जायँगे
? न तो हम भगवान्से दूर हो सकते
हैं और न भगवान् ही हमसे दूर हो सकते हैं । शरीर,
पदार्थ, रुपये, जमीन, मकान आदि सब-के-सब नाशवान् हैं । ये हमारे साथ नहीं रह सकते
और हम इनके साथ नहीं रह सकते । परन्तु भगवान्को हम जानें, चाहे
न जानें, उनसे हमारा वियोग हो ही नहीं सकता‒यह पक्की बात है
। शरीर चाहे स्थूल हो,
चाहे सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह सर्वथा प्रकृतिका है और हम अच्छे-मन्दे कैसे ही हों,
सर्वथा भगवान्के हैं । अगर यह बात समझमें आ जाय तो हम आज ही
जीवन्मुक्त हैं ! कारण कि नाशवान् चीजोंको अपना मानकर ही
हम बँधे हैं ।
(१८)
केवल यह स्वीकार कर लें कि हम परमात्माके हैं,
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है तो अभी-अभी
मुक्त हो जायँगे ! इसमें पाप-पुण्यका कायदा नहीं है । यह भावना ही उठा दें कि हम पापी
हैं । हमारेमें पाप-ताप कुछ नहीं हैं । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं । पाप आगन्तुक
हैं और किये हुए हैं, स्वाभाविक नहीं हैं । परन्तु हम स्वाभाविक ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ हैं‒इतना ही हमें
जानना है । पाप पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु है । हम पैदा और नष्ट होनेवाली वस्तु नहीं
हैं ।
हम सदा परमात्माके साथ हैं और परमात्मा सदा हमारे साथ हैं ।
हम पापी हैं तो परमात्माके साथ हैं, पुण्यात्मा हैं तो परमात्माके साथ हैं । हम अच्छे हैं तो परमात्माके
साथ हैं, मन्दे हैं तो परमात्माके साथ हैं । हमारेमें न पाप है,
न पुण्य । न अच्छा है,
न मन्दा । अभी हमें अनुभव न हो तो भी हम परमात्माके साथ ही हैं
। कितना ही बड़ा पापी हो, रोजाना जानवरोंको काटनेवाला कसाई हो,
तो भी है वह परमात्माका अंश ही ! हम
साक्षात् परमात्माके अंश हैं,
पाप-पुण्य हमें छूते ही नहीं, हमतक
पहुँचते ही नहीं । इस बातको हम ठीक समझ लें तो इतनेसे मुक्ति हो जायगी । शरीर तो संसारका है और जन्मता-मरता रहता है,
पर हम वही रहते हैं‒‘भूतग्रामः स एवायं
भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८ । १९) । संसारके साथ शरीरकी एकता है,
हमारी बिलकुल नहीं । समस्त पाप-ताप शरीरके साथ हैं,
हमारे साथ नहीं । हम सम्पूर्ण पाप-पुण्योंसे,
शुभ-अशुभ कर्मोंसे अलहदा हैं । बस,
इतनी बात मान लें । हम केवल परमात्माके हैं‒यह एकदम सच्ची बात
है । इसको माननेमात्रसे मुक्ति हो जायगी; क्योंकि मान्यतासे ही बन्धन होता है
और मान्यतासे ही मुक्ति होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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