।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
  पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
   भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय



भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)

३. सब जगह भगवान्‌को देखना

()

सब कुछ भगवान् ही हैं‒यह बात हमारेको दीखे चाहे न दीखे, हम जानें चाहे न जानें, हमारेको अनुभव हो चाहे न हो, परन्तु यह दृढतासे स्वीकार कर लें कि बात वास्तवमें यही सर्वोपरि है । कमी है तो हमारे माननेमें कमी है, वास्तविकतामें कमी नहीं है । जैसे, पहले क-ख-ग आदि अक्षरोंको सीखते हैं, फिर पुस्तकोंमें वे वैसे ही दीखने लग जाते हैं, ऐसे ही पहले केवल इस बातको मान लें कि सब कुछ भगवान् ही हैं’, फिर वैसा ही अनुभव होने लग जायगा । इसका अनुभव करनेके लिये कुछ करना नहीं है, कहीं आना-जाना नहीं है । भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय आदि जो कर रहे हैं, वे करते रहें । इसके लिये कोई नया साधन नहीं करना है, केवल दृढ़तासे स्वीकार कर लेना है कि सब कुछ परमात्मा ही हैं ।

(६)

आप कृपा करके ऐसा मत मानें कि वह परमात्मतत्त्व दूर है । वह आयेगा अथवा हम उसके पास जायँगे, तब उससे मिलन होगा । नहीं तो भजन करते हुए आप तो समझते हैं कि हम भगवान्‌के पास जा रहे हैं, पर वास्तवमें भगवान्‌से अपनेको दूर कर रहे हैं, भगवान्‌से अपने सम्बन्धके अभावको दृढ़ कर रहे हैं ! भगवान् तो फिर मिलेंगे, अभी तो नहीं मिलेंगे‒ऐसी धारणा रखते हुए राम-राम जपते हैं, कृपा करके इस धारणाको छोड़ दो । हमें अनुभव नहीं हो रहा है‒यह बात मानो तो कोई हर्ज नहीं, पर यह बात दृढ़तासे मान लो कि भगवान् सब जगह मौजूद हैं । मैं हूँ’इसमें भी भगवान् हैं, मनमें भी भगवान् हैं, बुद्धिमें भी भगवान् हैं, वाणीमें भी भगवान् हैं । राम-राम-राम‒इस आवाजमें भी भगवान् हैं । देखनेमें, सुननेमें, समझनेमें जो कुछ भी आ रहा है, वह सब भगवान् ही हैं‒

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न  मत्तोऽन्यदिति  बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                    (श्रीमद्भा ११ । १३ । २४)

मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है‒यह सिद्धान्त आपलोग तत्त्व-विचारके द्वारा समझ लीजिये ।’

()

परमात्माके विषयमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि अनेक मतभेद हैं, पर सब कुछ परमात्मा ही हैं’यह सर्वोपरि सिद्धान्त है । सम्पूर्ण मत इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । साधकोंके मनमें प्रायः यह भाव रहता है कि कोई परमात्माकी सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात बता दे तो हम जल्दी परमात्मप्राप्ति कर लें । वह सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात, सबका खास निचोड़, निष्कर्ष यही है कि केवल परमात्मा-ही-परमात्मा हैं । मैं’ भी परमात्मा हैं’, ‘तू’ भी परमात्मा हैं ‘‘यह’ भी परमात्मा हैं और वह’ भी परमात्मा हैं अर्थात् परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है ।

(८)


खेलमें छिपे हुए बालकको दूसरा बालक देख ले तो वह सामने आ जाता है कि अब तो इसने मुझे देख लिया, अब क्या छिपना ! ऐसे ही भगवान् सब जगह छिपे हुए हैं । अगर साधक सब जगह भगवान्‌को देखे तो फिर भगवान् उससे छिपे नहीं रहेंगे, सामने आ जायँगे ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे