Jan
01
(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒हमारा कोई अपमान
करता है तो उसके प्रति द्वेष पैदा हो जाता है और हमारे मनपर बहुत बुरा असर पड़ता है
। इससे बचनेका क्या उपाय है ?
स्वामीजी‒जो निन्दा, अपमान करता है,
वह आपके पापोंका नाश करता है । अपने शरीर-मन-इन्द्रियोंके प्रतिकूल जो परिस्थिति आती है, उससे पापोंका
नाश होता है । यह एकदम पक्की बात है । आप सुख भोगते हो, उससे
पुण्योंका नाश होता है । आप खुद विचार करो कि दुःख पुण्यका फल है क्या ? जो हमारे पापोंका नाश करता है, वह तो अपना नुकसान सहकर
भी हमारा उपकार करता है ! अतः हमारी निन्दा करनेवाला वास्तवमें
हमारा भला करनेवाला है, इस बातको आप दृढ़तासे समझ लो तो दुःख नहीं
होगा, उल्टे आनन्द आयेगा !
मन्निन्दया यदि जनः परितोषमेति
नन्वप्रयत्नसुलभोऽयमनुग्रहो
मे ।
श्रेयोऽर्थिनो हि पुरुषाः परतुष्टिहेतो-
र्दुःखार्जितान्यपि धनानि
परित्यजन्ति ॥
(जीवन्मुक्तिविवेक
२)
‘मेरी निन्दासे यदि किसीको सन्तोष होता
है, तो बिना
प्रयत्नके ही मेरी उनपर कृपा हो गयी; क्योंकि कल्याण चाहनेवाले
पुरुष तो दूसरोंके सन्तोषके लिये अपने कष्टपूर्वक कमाये हुए धनका भी परित्याग कर देते
हैं (मुझे तो कुछ करना ही नहीं पड़ा) !’
निंदक नेड़ा राखियै, आंगणि कुटी बंधाइ ।
बिन साबण पाणी बिना, निरमल करै
सुभाइ ॥
‘अपने निन्दकको अपने पास ही आँगनमें
छप्पर डालकर रखना चाहिये; क्योंकि वह बिना साबुन और पानीके ही हमें
सहजरूपसे निर्मल कर देता है ।’
इसलिये अपमान करनेवालेका उपकार मानना चाहिये और छिपकर
अर्थात् उसको मालूम न पड़े, इस तरहसे उसका उपकार करना चाहिये, उसकी सहायता
करनी चाहिये ।
हमें जो दुःख होता है, वह हमारी
बेसमझीसे होता है । बेसमझीसे होनेवाला दुःख समझनेसे मिट जाता है । सत्संगसे
बातें जाननेमें आती हैं, और जाननेमें आनेसे दुःख मिट जाता है; क्योंकि
अनजानपनेमें दुःख होता है, जाननेसे मिट जाता है ।
आपके पापोंका नाश हो जाय तो इसमें हानि क्या है ? इसमें लाभ-ही-लाभ है । इसमें आप निर्भय रहो । प्रशंसा हो,
वाह-वाह हो, उसमें हानि है,
खतरा है ! जितने सन्त हुए हैं, वे प्रायः दुःखदायी परिस्थिति आनेसे सन्त हुए हैं ।
हमारे मनके प्रतिकूल कोई निन्दा-अपमान करे तो हमारा
फायदा होता है या नुकसान, आप बताओ ?
श्रोता‒फायदा तो होता है, पर समझमें नहीं आता !
स्वामीजी‒समझमें नहीं आता तभी तो मेरेको कहना
पड़ता है ! अगर आपके समझमें बात
आ जाती तो मेरेको कहना क्यों पड़ता ?
बहुत वर्ष पहलेकी बात है । हमारे गुरु महाराजका शरीर शान्त
हो गया । उसको जलानेको गये तो जलाते समय मेरे आँसू आ गये ! मेरे मनमें यह बात
आयी कि लोग पूछेंगे कि क्या तुम्हारे गुरुजी हैं तो हम क्या कहेंगे ! इतनी बात मनमें आते ही आँसू आ गये । तब हमारे गुरुभाई रामधनजी बोले‒‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांक्ष.....’ (गीता २ । ११)
। यह सुनते ही आँसू सूख गये ! तात्पर्य
है कि जब बात समझमें आ जाय तो शोक मिट जाता है । आप सत्संग क्यों करते हो ?
ऐसी बातें जाननेके लिये ही तो सत्संग करते हो ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे |