Jan
28
(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒आप कहते हैं कि
नामजप करना, कीर्तन करना भी अभ्यास है, तो फिर जल्दी भगवान्की प्राप्ति कैसे हो ?
स्वामीजी‒नामजप करना, कीर्तन करना अभ्यास
नहीं है, प्रत्युत पुकार है । अभ्यासमें अपना बल होता है,
पुकारमें जिसकी पुकार होती है, उसका बल होता है । साधन करनेकी अपेक्षा पुकार बढ़िया
है । पुकार साधनसे बढ़कर है । जैसे बालक ‘माँ !
माँ !’ करके पुकारता है, ऐसे ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहकर
भगवान्को पुकारो । अपने बलका भरोसा
न रहे, तब पुकार असली,
बढ़िया होती है । अपने बलका किंचिन्मात्र
भी भरोसा न रहे, केवल भगवान्की कृपाका
भरोसा रहे । भगवान्की कृपासे असम्भव भी सम्भव हो जाता है ।
श्रोता‒आप कहते हैं कि एकान्तकी
इच्छा करनेवाला भोगी होता है
। यह
बात समझमें नहीं आयी !
स्वामीजी‒एकान्त मिलनेपर वह राजी होता है कि
नहीं ? राजी होना भोग ही तो है ! भोगीको परमात्मा थोड़े ही मिलते हैं !
श्रोता‒हमलोगोमे वैराग्य तो है नहीं, इसलिये शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरे लिये नहीं‒यह बात भीतर ठहरती नहीं, ऊपर-ऊपर रह
जाती है । क्या करें ?
स्वामीजी‒भगवान्की कृपापर विश्वास कम
है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं । अपने बलसे नहीं होगा । भगवान्में अपार, अनन्त बल है । भगवान् हैं और वे सर्वोपरि हैं,
अद्वितीय हैं, सब समयमें हैं, सब जगह हैं, सबके हैं, सबके पासमें
हैं, सर्वज्ञ हैं, परम सुहद् हैं । उनके
समान हित करनेवाला दूसरा कोई है ही नहीं ।
उमा राम सम हित जग माहीं
।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
(मानस, किष्किन्धा॰ १२ । १)
श्रोता‒पूरा विश्वास नहीं होता महाराजजी
!
स्वामीजी‒भगवान्से माँगो । भगवान्से मिलता है ।
श्रोता‒‘सब जग ईस्वररूप है’‒यह माननेमें बाधा क्या आ
रही है ?
स्वामीजी‒बाधा है‒संयोगजन्य
सुखकी इच्छा । सुखभोग इतना बाधक नहीं है, जितनी सुखभोगकी लालसा
बाधक है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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