Feb
28
(गत ब्लॉगसे आगेका)
कन्यारूपी धन लेनेका भी कर्जा चढ़ता है, फिर साथमें धन भी माँगना
घोर अन्याय है ! दहेजमें मिला हुआ धन दान-पुण्यमें लगा देना चाहिये, घरमें नहीं रखना चाहिये ।
बेटेके ससुरालसे आया हुआ धन अपने काममें नहीं लेना चाहिये
। वह तो सब-का-सब बाँट देना चाहिये । अगर वहाँसे थोड़ी मिठाई
आये तो वैसी मिठाई अपने घरसे, अपने पैसोंसे बनाकर समाजमें बाँटनी
चाहिये । जो कन्यारूपी धनका निरादर करता है, उसके वंशका नाश होता है, बड़ा भारी पाप लगता है !
विवाहके बाद लड़कीको भी अपने पीहरका धन नहीं लेना चाहिये
। विवाहके बाद उसका घर बदल जाता है, गोत्र बदल जाता है ।
गीताके सातवें अध्यायमें भगवान् कहते हैं‒
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो
बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(गीता ७ ।
४)
‘पृथ्वी, जल,
तेज, वायु, आकाश
(-ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि
तथा अहंकार‒इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोवाली मेरी यह अपरा प्रकृति
है ।’
भगवान्ने अहंकारको अपना (इतीयं मे) कहा है । उस अहंकारको आपने
अपना मान लिया‒यह गलती की है । अहंकारको भगवान्का मानना चाहिये । अहंकार भगवान्का है, आपका नहीं है‒यह बहुत बढ़िया बात है ! अहंकार अपरा प्रकृतिका आठवाँ अंश है । जैसे मिट्टीका ढेला भगवान्का है, अपना नहीं है, ऐसे ही अहंकार
भी भगवान्का है, अपना नहीं है । मेरी दृष्टिसे
यह बहुत उत्तम, बहुत श्रेष्ठ बात है ! अहंकार
मेरा नहीं है, इसलिये ‘निर्ममो निरहङ्कारः
स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ ।
७१) अर्थात् जो निर्मम और निरहंकार होता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है । कारण कि अपना न मानकर भगवान्का मानेंगे, तभी निर्मम-निरहंकार
होंगे । अगर अपना मानेंगे तो निर्मम-निरहंकार कैसे होंगे ?
निर्मम-निरहंकार होना ‘ब्राह्मी स्थिति’ है‒‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’
(गीता २ । ७२) । अगर
मैं-मेरापन छोड़ दो तो आप साक्षात् ब्रह्म हो !
जैसे कन्यादान एक बार ही होता है, ऐसे ही मैं-मेरेका त्याग भी एक ही बार होता है । यह मेरा नहीं है‒ऐसा एक बार कह दिया तो अब दूसरी बार क्या कहेंगे ?
श्रोता‒‘ये चैव सात्त्विका भावा॰’ (गीता ७ । १२)‒इसकी व्याख्यामें आपने लिखा है
कि आप गुणोंमें फँस जाते हो, इसलिये भगवान्का भजन नहीं कर सकते ।
हम गुणोंमें नहीं फँसे, ऐसा कोई उपाय बतायें ।
स्वामीजी‒शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं
है और शरीर मेरे लिये नहीं है‒ये तीन बातें मान लो । शरीर केवल संसारकी सेवाके
लिये है । अतः केवल सेवाके लिये ही जीना है । सेवाके लिये
जीते रहें‒इसके लिये ही अन्न,
जल और नींद लेनी है ।
श्रोता‒मेरा भजन-ध्यानमें तो मन लगता है, पर सत्संगमें मन नहीं लगता
। मुझे
सत्संग करना चाहिये या भजन-ध्यान
करना चाहिये ?
स्वामीजी‒भजन-ध्यान करना चाहिये । जैसे व्यापार वही करना चाहिये, जिसमें रुपया ज्यादा पैदा हो, ऐसे ही साधन वही करना चाहिये, जिसमें मन ज्यादा लगे ।
एक समय सत्संग भी कर लेना चाहिये । कारण कि सत्संग एकान्तमें किये जानेवाले साधनकी पुष्टि करनेवाला होता है
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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