।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

आप सब-के-सब शरीरसे बिल्कुल अलग हैं । मरनेपर शरीरसे अलग होते हैं तो वास्तवमें पहलेसे अलग हैं, तभी अलग होते हैं । अगर पहलेसे अलग नहीं हों तो कैसे अलग होंगे ? शरीरसे अलग करनेके लिये क्या उपदेश मिलता है ? कोई मरता है तो क्या उपदेशसे मरता है ? क्या उपदेशके बिना वह मरता नहीं ? मरनेके लिये क्या उपदेश देना पड़ता है ? आप स्वतः-स्वाभाविक शरीरसे अलग हैं । इसलिये यह बात पहले ही स्वीकार कर लेनी चाहिये कि हम शरीरसे अलग तो हैं ही, अब अलग अनुभव करना है । इतनी-सी बात है !

आप ध्यान देकर सच्ची बात सुनो‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥’ (मानस, उत्तर ११७ । १) आपको ‘सहज सुख रासी’ बताया है; परन्तु ‘सुखराशि’ तो दूर रहा, आपको दुःख-ही-दुःख होता है ! कारण क्या है ? कि शरीरके साथ एकता मानी है । नहीं तो दुःख आये कहाँसे ? शरीरको अपना माना है, इसलिये दुःख होता है ।

कोई मरना नहीं चाहता, फिर भी सब-के-सब मरते हैं । बिना चाहे क्यों मरते हो ? शरीरके साथ एकता मानी है, इसलिये मरते हो । शरीरके साथ एकता नहीं मानो तो मरोगे ही नहीं, प्रत्युत अमर हो जाओगे । वास्तवमें आप स्वतः-स्वाभाविक अमर हो । मरता शरीर है, आप नहीं । शुकदेवजीने कहा है‒

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥
                                        (श्रीमद्भा १२ । ५ । २)

‘हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा । जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगेयह बात नहीं है ।’

‘मैं शरीर हूँ’यह पशुबुद्धि है । मनुष्यबुद्धि तो अपनेको शरीरसे अलग अनुभव करना है । मैं आपको पशुबुद्धि छोड़नेके लिये ही कहता हूँ । सत्संग अर्थात् सत्‌का संग तभी होगा, जब शरीरको अपना नहीं मानोगे । शरीरको अपना मानना असत्का संग है । आप असत्का संग करते हो और कहते हो कि हम सत्संग करते हैं ! शरीरको अपना मानना सत्संग नहीं है, प्रत्युत कुसंग है ! आपके पास अरबों-खरबों रुपये हो जायँ तो भी आप शान्ति नहीं पा सकते, पर शरीरसे अलग हो जाओ तो एक कौड़ी लगेगी नहीं, पर आनन्द हो जायगा ! ‘हीग लगे ना फिटकरी, रंग झकाझक आये’ !

श्रोतामैं चार दिनसे यहाँ आया हुआ हूँ मुझे आपके प्रवचनोंसे बड़ा लाभ मिला है परन्तु मुझे नौकरीके कारणसे जाना पड़ रहा है ! मुझे आपका अभाव बहुत खटकता है ! मुझे क्या करना चाहिये ?

स्वामीजी‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ ऐसे भगवान्को पुकारो । यह बहुत बढ़िया साधन है । जैसे बच्चा अपनी माँको पुकारता है, ऐसे हरदम भगवान्को पुकारते रहो । ‘माँ’ नाम तो सबका है, पर बच्चा मेरी (अपनी) माँको पुकारता है, ऐसे ‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारो । सब काम ठीक हो जायगा ! यह पुकार महामन्त्र है, और सब साधनोंसे तेज है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे