।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

                             यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
       और आस-बिस्वास-भरोसो, हरौ जीव-जड़ताई ॥
                                      (विनयपत्रिका १०३)

‘मेरी योग्यतामें कमी है तो वह आप पूरी करो । मैं अपनी शक्तिसे पूरी नहीं कर सकता ! प्रार्थना भी नहीं कर सकता ! रो भी नहीं सकता ! ऐसी इच्छा भी जोरदार होती नहीं ! परन्तु एक बात है कि आपका हूँ ! हे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे स्वामिन् ! मैं जैसा भी हूँ आपका हूँ । आप निर्बलके बल हो ! अरक्षितके रक्षक हो ! मेरे-जैसे कमजोरके लिये आप मालिक हो ! मैं यहाँतक आया हूँ तो आपकी कृपासे ही आया हूँ मेरी योग्यतासे नहीं आया हूँ ! मैं आपके सामने आनेलायक भी नहीं हूँ ! आपने ही सबका उद्धार किया है । आपने ऐसे अयोग्योंको भी योग्य बनाया है । उनपर भी आपने कृपा की है ।’

‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे मेरे स्वामिन् ! आप कृपा करो । आपने अपात्रको भी पात्र बनाया है । कुपात्रको भी पात्र बनाया है ! आपको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ ? दूसरी कोई ठौर दीखती नहीं ! दूसरा कोई ऐसा मालिक भी नहीं दीखता । किसके आगे अपना रोना रोऊँ ? कोई सुनता नहीं ! सभी अपने-अपने काममें लगे हुए हैं । आप ही एक ऐसे हो जो सुनते हो । लोग भी भोले हैं, विश्वासमें आ जाते हैं ! मेरेपर भरोसा करते हैं ! मैं लायक नहीं हूँ । अयोग्यको योग्य आप ही बनाते हो । आप ही कृपा करो । यहाँतक भी आपने ही पहुँचाया है ! मैं अभिमान कर लेता हूँ । यह मेरी महान् मूर्खता है ! अब कहूँ तो क्या कहूँ ? किससे कहूँ ? कौन सुने ? आपके सिवाय कोई सुननेवाला नहीं है ।

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान ।
जनम जनम रति राम  पद  यह  बरदानु  न  आन ॥
                                         (मानस, अयोध्या २०४)

ऐसा मैं कह तो देता हूँ पर मेरी संसारसे अरुचि नहीं होती, आपके चरणोंमें स्नेह नहीं होता, पूरा विश्वास नहीं होता, भरोसा नहीं होता ! हे नाथ ! हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! ऐसी कृपा करो कि सच्चे हृदयसे आपमें लग जाऊँ ।’


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे