(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरौ जीव-जड़ताई ॥
(विनयपत्रिका
१०३)
‘मेरी योग्यतामें कमी है तो वह आप पूरी करो । मैं अपनी
शक्तिसे पूरी नहीं कर सकता ! प्रार्थना भी नहीं कर सकता ! रो भी नहीं सकता ! ऐसी इच्छा भी जोरदार होती नहीं !
परन्तु एक बात है कि आपका हूँ ! हे नाथ !
हे मेरे प्रभो ! हे स्वामिन् ! मैं जैसा भी हूँ आपका हूँ । आप निर्बलके बल हो ! अरक्षितके
रक्षक हो ! मेरे-जैसे कमजोरके लिये आप मालिक
हो ! मैं यहाँतक आया हूँ तो आपकी कृपासे ही आया हूँ मेरी योग्यतासे
नहीं आया हूँ ! मैं आपके सामने आनेलायक भी नहीं हूँ !
आपने ही सबका उद्धार किया है । आपने ऐसे अयोग्योंको भी योग्य बनाया है
। उनपर भी आपने कृपा की है ।’
‘हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे मेरे स्वामिन् ! आप कृपा करो । आपने अपात्रको भी पात्र
बनाया है । कुपात्रको भी पात्र बनाया है ! आपको छोड़कर मैं कहाँ
जाऊँ ? दूसरी कोई ठौर दीखती नहीं ! दूसरा
कोई ऐसा मालिक भी नहीं दीखता । किसके आगे अपना रोना रोऊँ ? कोई
सुनता नहीं ! सभी अपने-अपने काममें लगे
हुए हैं । आप ही एक ऐसे हो जो सुनते हो । लोग भी भोले हैं, विश्वासमें
आ जाते हैं ! मेरेपर भरोसा करते हैं ! मैं
लायक नहीं हूँ । अयोग्यको योग्य आप ही बनाते हो । आप ही कृपा करो । यहाँतक भी आपने
ही पहुँचाया है ! मैं अभिमान कर लेता हूँ । यह मेरी महान् मूर्खता
है ! अब कहूँ तो क्या कहूँ ? किससे कहूँ
? कौन सुने ? आपके सिवाय कोई सुननेवाला
नहीं है ।
अरथ न धरम न काम रुचि गति
न चहउँ निरबान ।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न
आन ॥
(मानस,
अयोध्या॰ २०४)
‒ऐसा मैं कह तो देता हूँ पर मेरी संसारसे
अरुचि नहीं होती, आपके चरणोंमें स्नेह नहीं होता, पूरा विश्वास नहीं होता, भरोसा नहीं होता ! हे नाथ ! हे प्रभो ! हे स्वामिन्
! ऐसी कृपा करो कि सच्चे हृदयसे आपमें लग जाऊँ ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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