।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७४, शनिवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

               विदेशी चीजोंको, फलोंको महत्त्व देना ठीक नहीं है । यह स्वास्थ्यके लिये भी खराब है । जिस देश और प्रान्तका प्राणी हो, उसके लिये उसी देश और प्रान्तकी चीज ही हित करनेवाली होती हैऐसा धन्वन्तरि महाराजका कहना है । अतः विदेशके फल, चीजें अपने लिये उपयोगी नहीं हैं । वे शरीरके लिये खराब हैं । जैसे, जोधपुर प्रान्तमें रहनेवालेके लिये जोधपुर प्रान्तको चीज ही स्वास्थ्यप्रद है । मारवाड़की चीज बंगालके लिये अच्छी नहीं होती और बंगालकी चीज मारवाड़के लिये अच्छी नहीं होती । दूसरे प्रान्तकी चीज स्वास्थ्य बिगाड़नेवाली होती है । इसलिये मेरी प्रार्थना है कि विदेशी चीज काममें मत लाओ । पैसा भी ज्यादा लगता है और बिगाड़ भी होता है, क्या फायदा ? इसलिये सदा याद रखो कि अपने देशकी चीज ही अपने लिये हितकर होती है । अतः अपने देशकी चीज ही काममें लाओ ।

विदेशकी चीज स्वास्थ्यके लिये भी ठीक नहीं है और देशके लिये भी ठीक नहीं है, प्रत्युत महान् घातक है ! आपका देश पहलेसे ही गरीब है । विदेशी चीजें लेनेसे पैसा विदेशमें जायगा । यहाँ जो विदेशी कम्पनियाँ आयी हैं, वे बहुत नुकसान करनेवाली हैं ! गाँधीजीने विदेशी चीजोंका घोर विरोध किया था । विदेशी खाद्य-पदार्थ तो बिल्कुल ही नहीं लेना चाहिये ।

दूसरी बात मुझे विशेषरूपसे माताओं-बहनोंसे कहनी है । आजकलकी लड़कियाँ जो शृंगार करती हैं, विदेशी पोशाक पहनती हैं, विदेशकी नकल करती हैं, यह बहुत खराब, पतन करनेवाली चीज है ! विदेशी वेशभूषा अच्छी नहीं है । हमारे दादागुरुजी कहते थे कि बेटी ! सारा कपड़ा नया नहीं पहनना, साथमें एक-दो पुराना कपड़ा भी रखना । सन्तोंकी बातें बहुत लाभदायक होती हैं ! लड़कियाँ बिगड़ जायँगी तो सब बिगड़ जायँगे ! माँ बिगड़ेगी तो सन्तान बिगड़ेगी ही ! माँ सुधरेगी तो सब सुधर जायँगे । जो अच्छे-अच्छे सन्त-महात्मा हुए हैं, उनकी माताएँ अच्छी हुई हैं ।

श्रोताएक लड़की पूछ रही है कि सत्संग करनेसे मेरी रुचि साधनमें बढ़ गयी है, जिस कारण पढ़नेमें मन नहीं लगता अब साधन करना और पढ़ाई करनादोनोंमें सामंजस्य कैसे हो ?

स्वामीजीभगवान्की प्रसन्नताके लिये, माँ-बापकी प्रसन्नताके लिये, कुटुम्बकी प्रसन्नताके लिये पढ़ाई करनी है, अपने लिये नहीं । ऐसा करनेसे पढ़ना उपकार हो जायगा, सेवा हो जायगी ! इसलिये केवल सेवाके लिये पढ़ना है, अपने लिये नहीं । अपने लिये केवल भजन करना है । फिर सब ठीक हो जायगा ।

श्रोताभावशरीर क्या है ?

स्वामीजीमैं भगवान्का हूँयह भावशरीर है । प्रेम भी भाव है । यह जड़ नहीं है, प्रत्युत चिन्मय है । आपका भाव चेतन है । साधक शरीर नहीं होता, प्रत्युत भाव होता है ।


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे