(गत ब्लॉगसे आगेका)
विदेशी चीजोंको, फलोंको महत्त्व देना ठीक नहीं है । यह
स्वास्थ्यके लिये भी खराब है । जिस देश और प्रान्तका प्राणी हो, उसके लिये उसी देश और प्रान्तकी चीज ही हित करनेवाली होती है‒ऐसा धन्वन्तरि महाराजका कहना है । अतः विदेशके फल, चीजें
अपने लिये उपयोगी नहीं हैं । वे शरीरके लिये खराब हैं । जैसे, जोधपुर प्रान्तमें रहनेवालेके लिये जोधपुर प्रान्तको चीज ही स्वास्थ्यप्रद
है । मारवाड़की चीज बंगालके लिये अच्छी नहीं होती और बंगालकी चीज मारवाड़के लिये अच्छी
नहीं होती । दूसरे प्रान्तकी चीज स्वास्थ्य बिगाड़नेवाली होती है । इसलिये मेरी प्रार्थना
है कि विदेशी चीज काममें मत लाओ । पैसा भी ज्यादा लगता है और बिगाड़ भी होता है,
क्या फायदा ? इसलिये सदा याद रखो कि अपने देशकी
चीज ही अपने लिये हितकर होती है । अतः अपने देशकी चीज ही काममें लाओ ।
विदेशकी चीज स्वास्थ्यके लिये भी ठीक
नहीं है और देशके लिये भी ठीक नहीं है, प्रत्युत महान् घातक
है ! आपका देश पहलेसे ही गरीब है । विदेशी चीजें लेनेसे पैसा विदेशमें जायगा । यहाँ
जो विदेशी कम्पनियाँ आयी हैं, वे बहुत नुकसान करनेवाली हैं ! गाँधीजीने विदेशी चीजोंका घोर विरोध किया था । विदेशी खाद्य-पदार्थ तो बिल्कुल ही नहीं लेना चाहिये ।
दूसरी बात मुझे विशेषरूपसे माताओं-बहनोंसे कहनी है । आजकलकी
लड़कियाँ जो शृंगार करती हैं, विदेशी पोशाक पहनती हैं,
विदेशकी नकल करती हैं, यह बहुत खराब, पतन करनेवाली चीज है ! विदेशी वेशभूषा अच्छी नहीं है
। हमारे दादागुरुजी कहते थे कि बेटी ! सारा कपड़ा नया नहीं पहनना,
साथमें एक-दो पुराना कपड़ा भी रखना । सन्तोंकी बातें बहुत लाभदायक होती हैं ! लड़कियाँ बिगड़ जायँगी तो सब बिगड़ जायँगे !
माँ बिगड़ेगी तो सन्तान बिगड़ेगी ही ! माँ
सुधरेगी तो सब सुधर जायँगे । जो अच्छे-अच्छे सन्त-महात्मा हुए हैं, उनकी माताएँ अच्छी हुई हैं ।
श्रोता‒एक लड़की पूछ रही है
कि सत्संग करनेसे मेरी रुचि
साधनमें बढ़ गयी है, जिस कारण पढ़नेमें मन नहीं
लगता । अब साधन करना और पढ़ाई
करना‒दोनोंमें सामंजस्य कैसे हो ?
स्वामीजी‒भगवान्की प्रसन्नताके लिये,
माँ-बापकी प्रसन्नताके लिये, कुटुम्बकी प्रसन्नताके लिये पढ़ाई करनी है, अपने लिये
नहीं । ऐसा करनेसे पढ़ना उपकार हो जायगा, सेवा हो जायगी !
इसलिये केवल सेवाके लिये पढ़ना है, अपने लिये नहीं
। अपने लिये केवल भजन करना है । फिर सब ठीक हो जायगा ।
श्रोता‒भावशरीर क्या है ?
स्वामीजी‒मैं भगवान्का हूँ‒यह भावशरीर है । प्रेम भी भाव है । यह जड़ नहीं है, प्रत्युत चिन्मय है
। आपका भाव चेतन है । साधक शरीर नहीं होता, प्रत्युत भाव होता
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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