(गत ब्लॉगसे आगेका)
सांसारिक जानकारी रखनेवाला दूसरेको बताता नहीं, और पारमार्थिक जानकारीवाला
दूसरेको बताये बिना रहता नहीं ! सांसारिक जानकारीको लोग छिपाते
हैं । परन्तु पारमार्थिक जानकार अपनी जानकारीको छिपा सकता ही नहीं ! अगर वह छिपाये तो उस जानकारीका वह करेगा क्या ? माँका
दूध क्या माँ पीती है ? वह तो बालकोंके लिये ही होता है । ऐसे
ही उसकी जानकारी अनजानोंके लिये ही होती है । कारण कि वह तो जान गया, अब उसको जानकारीकी जरूरत क्या रही ? वह जानकारी दूसरेके
लिये है । हाँ, कोई नहीं मिले तो बात अलग है ! फल पकता है तो तोता आता है, साधक पकता है तो सिद्ध आता है !
श्रोता‒ आपने कहा ‘के तो निज पारस नहीं कै
बीच रहा बिछोहा’ तो यह बीचका बिछोह, आड़ क्या है ?
स्वामीजी‒साधक हृदय खोलकर मिलता नहीं । हृदय
खुले बिना काम बनता नहीं । वह हृदय खोलकर मिले तो पट काम हो जायगा ! हरेक जगह आदमीका हृदय
खुलता नहीं । सरल स्वभाव हो, हृदयमें कपट नहीं हो‒‘सरल सुभाव न मन कुटिलाई’ । साधकमें सरलता चाहिये और गुरुमें
योग्यता चाहिये । फिर चट काम होता है ! वह सरलता हरेक जगह नहीं
मिलती । बिलमें जानेके लिये साँपको भी सीधा होना पड़ता है, नहीं
तो वह जा नहीं सकता । भगवान् कहते हैं‒
सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर आसा । करइ
तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई । एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥
(मानस,
उत्तर॰ ४६ । १-२)
‘सरल स्वभाव हो, मनमें
कुटिलता न हो और जो कुछ मिले, उसीमें सदा सन्तोष रखे । मेरा दास
कहलाकर यदि कोई मनुष्योंकी आशा करता है तो तुम्हीं कहो, उसका
क्या विश्वास है ? बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ, हे भाइयो !
मैं तो इसी आचरणके वशमें हूँ ।’
दूसरेकी थोड़ी-भी आशा बाधा
लगा देती है ! इसलिये अनन्यभाव होना चाहिये । अपनी योग्यताकी,
अपनी बुद्धिकी, अपने वर्णकी, अपने आश्रमकी आशा भी बाधक होती है !
तत्त्वप्राप्तिमें देरी तब लगती है, जब ठीक बतानेवाला नहीं
मिलता । बतानेवाला मिल जाय, पर सुननेवाला ठीक समझे नहीं,
तब भी देरी लगती है । ठीक बतानेवाला मिल जाय और सुननेवाला ठीक समझ ले
तो बहुत जल्दी काम होता है । अगर विचार किया जाय तो संसारमें परमात्माकी प्राप्तिके
समान सुगम काम कोई है ही नहीं ! तो फिर सबको प्राप्ति क्यों नहीं
हो रही है ? क्योंकि सबकी वैसी इच्छा नहीं है । एक परमात्माके
सिवाय दूसरी कोई इच्छा न हो, ऐसा आदमी बहुत कम मिलता है । भीतरकी
इच्छा कम होती है, इसलिये देरी लगती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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