(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒गीताजीका पाठ, रामायणका पाठ और भगवन्नाम-जप‒इन तीनोंमें कौन श्रेष्ठ है ?
स्वामीजी‒इनमें लगन श्रेष्ठ है । भीतरकी लगन
होनी चाहिये,
चाहे वह पाठके साथ हो, चाहे नामके साथ हो ।
श्रोता‒आप कहते हैं कि भलाई
करो, पर भलाई करते हैं तो
हमारा नुकसान होता है ! नुकसान सहते रहें और भलाई
करें या भलाई करना छोड़
दें ?
स्वामीजी‒भलाई करना मत छोड़ो । नुकसान सह लो ।
परिणाममें नुकसान नहीं होगा । कृपा करके कृपानाथ ! आप भलाई मत छोड़ो, मत छोड़ो, मत छोड़ो ! दुःख पा लो, पर
भलाई मत छोड़ो । भलाई छोड़ोगे तो दुःखोंका अन्त नहीं आयेगा
! आज आप भले ही बात मानो, चाहे मत मानो,
बहुत दुःख पाना पड़ेगा, पड़ेगा, पड़ेगा !!
श्रोता‒आपने कहा कि मनसे सम्बन्ध
छोड़ दो, तो मनसे सम्बन्ध कैसे छोड़े ?
स्वामीजी‒मन नहीं माने तो आप मान
जाओ ! मन नहीं
लगता तो आप लग जाओ । आप मनसे अलग हो । आप और मन एक हो क्या ? बताओ । आपसे हम पूछें
कि आपका मन है या मनके आप हो अथवा मन आप हो ? आपको कहना ही पड़ेगा
कि मन हमारा है । मनको हमारा (अपना) मत
मानो । मन हमारा कहना नहीं मानता, इसलिये हम मनको हमारा नहीं
मानेंगे ।
श्रोता‒आपने कहा था कि सबको
छुट्टी दे दो । अगर
बच्चोंको छुट्टी दे दें तो
वे उद्दण्ड हो जायँगे । इस विषयमें क्या करना चाहिये
?
स्वामीजी‒उनको प्रेमसे न्याययुक्त बात कह दो
और मनसे छुट्टी दे दो । पर लोगोंमें इसकी प्रसिद्धि नहीं करनी है । वे मानें तो आनन्द, नहीं मानें तो बहुत
आनन्द ! आजकल प्रायः करके बच्चे कहना नहीं मानते । जब कहना ही
नहीं मानें तो क्या करें ? बताओ । छुट्टी
देनेका यह अर्थ नहीं है कि बालकोंका पालन-पोषण नहीं करना चाहिये, उनको शिक्षा नहीं देनी चाहिये
। छुट्टी देनेका अर्थ है कि हम मालिक नहीं बनेगे ।
हमने तो पहलेसे ही सबको छुट्टी दे रखी है ! हम न किसीके गुरु बनते
हैं, न किसीके मालिक बनते हैं, पर बातें
बढ़िया सुना देते हैं । नीयत अच्छी रखते हैं । बातें सुनानेमें कपट करते नहीं । आप बात
नहीं मानें तो नाराज होते नहीं । आप हमारा कहना नहीं मानें तो क्या करें ? बताओ । छुट्टी देनेका मतलब है कि आपपर शासन नहीं करेंगे । अच्छी बात कह देंगे,
फिर जैसी मरजी हो, वैसे करो !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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