(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒मैं कोई भी सत्कार्य
करता हूँ तो अहंकार पैदा हो जाता है, क्या करूँ ? अहंकार कैसे मिटे ?
स्वामीजी‒सब बातोंकी दवाई एक ही है‒‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । अपने बलसे मिटाओ, न मिटे तो ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारो ।
श्रोता‒आपने बताया
कि हम मुसाफिर हैं, तो हम
भगवान्के घरसे क्यों निकाल दिये गये ?
स्वामीजी‒आपको निकाला नहीं है, प्रत्युत आप खुद निकले
हो । अगर भगवान् निकालते तो जिम्मेवारी भगवान्पर होती । आप खुद निकले हो, इसलिये आपपर जिम्मेवारी है । भगवान् कभी निकालते नहीं । कहाँ लिखा है कि भगवान्ने
निकाल दिया ? उनका निकालनेका स्वभाव ही नहीं है । पूतनाने मारनेके
लिये जहर दिया तो उसको भी भगवान्ने माँकी गति देकर अपने घर भेज दिया !
श्रोता‒कैंसर आदि भयंकर बीमारियाँ भी क्या भगवान्के
नामसे ठीक हो सकती हैं
?
स्वामीजी‒हाँ हो सकती हैं । भगवान्के नामसे
क्या नहीं हो सकता ! परन्तु भक्तलोग बीमारी आदि दूर करनेमें भगवान्के नामका प्रयोग
नहीं करते । जो अत्यन्त लोभी होता है, वह पैदल चला जाता है,
पर पैसा खर्च नहीं करता । भगवान्का नाम पैसोंसे बहुत कीमती है । उसको
रोग दूर करनेमें क्यों लगायें ? समझदार आदमी कभी भी भगवान्के
नामका प्रयोग बीमारी आदि दूर करनेमें नहीं करेगा । जन्म-मरण दूर
करनेवाले भगवान्के नामको बीमारी आदि दूर करनेमें कैसे लगाया जाय ! नाम खर्च करके बीमारी मिटाये तो भी शरीर मरेगा और बीमारी
रहे तो भी मरेगा । एक दिन जरूर मरेगा ही, फिर उसके लिये भगवान्का नाम क्यों खर्च करें ? भगवान्के नामके माहात्म्यको जाननेवाला ऐसा कभी नहीं करता । दुःख तो भोगनेसे
दूर हो जायगा । मनुष्य सकामभाव तब रखता है, जब वह मूर्ख होता !
श्रोता‒सूआ-सूतक होनेपर
घरमें जो ठाकुरजी हैं, उनकी पूजा करें कि नहीं
?
स्वामीजी‒घरके जो अपने लड्डूगोपाल हैं,
उनमें सूआ-सूतक नहीं लगता । अगर मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा की हुई हो तो उसमें सूआ-सूतक लगता है । उसकी
पूजा ब्राह्मणसे अथवा विवाहित बहन-बेटीसे करानी चाहिये । विवाह
होनेपर बहन-बेटीका गोत्र दूसरा हो जाता है । परन्तु जिनकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हुई है, ऐसे ठाकुरजी अपने घरके बालककी
तरह ही हैं । अपने बालकको कोई सूआ-सूतक नहीं लगता ।
श्रोता‒मैं बचपनसे
सत्संग करती हूँ पर भगवान्में
वैसा प्रेम नहीं हो रहा
है ! इसका क्या
उपाय करूँ ?
स्वामीजी‒भगवान्से कहो कि ‘हे नाथ ! मुझे प्रेम दो’ । यह
अपने उद्योगसे नहीं होता, प्रत्युत भगवान्की कृपासे होता है
। भगवान्से एकान्तमें रोकर कहो कि महाराज ! अपने चरणोंका प्रेम दो । भगवान्का प्रेम,
भक्ति माँगनेकी चीज है । भगवान्ने काकभुशुण्डिको
सब कुछ देनेकी बात कही, पर अपनी भक्ति देनेकी बात नहीं कही‒‘भगति आपनी देन न कही’ (मानस, उत्तर॰ ८४ । २) । कोई भी मातहत (अधीन, दास) बने तो बड़ोंको शर्म आती है कि इसको अपनेसे छोटा
कैसे बनाऊँ ? भगवान्को भी छोटा बनानेमें
शर्म आती है । इसलिये भगवान्का प्रेम माँगो, भक्ति माँगो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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