(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒अभेद और अभिन्नता क्या है ?
स्वामीजी‒मैं बता तो दूँगा, पर यह बात जल्दी समझमें
नहीं आयेगी ! ज्ञानमार्गमें अभेद होता है और भक्तिमार्गमें अभिन्नता
होती है । जीव तथा ब्रह्मकी एकता ‘अभेद’ है और अपने-आपको परमात्मामें
लीन कर देना ‘अभिन्नता’ है । मेरी जगह भगवान् ही आ गये, मैं हूँ
ही नहीं‒यह अभिन्नता है । ‘वासुदेवः सर्वम्’ केवल भगवान् ही हैं‒यह अभिन्नता है, जो गीताका सिद्धान्त है । अभेद तत्त्वाद्वैत
है और अभिन्नता प्रेमाद्वैत है ।
गीतामें ज्ञानमार्गको लौकिक कहा है‒‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा
निष्ठा’ (गीता ३ । ३), ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके’ (गीता
१५ । १६), और भक्तिमार्गको अलौकिक बताया है‒‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । लौकिक-अलौकिकका यह भेद गीताकी किसी भी टीकामें देखनेमें नहीं आया है !
श्रोता‒अभेद और अभिन्नताका अर्थ तो
वास्तवमें एक ही निकलता है ?
स्वामीजी‒मैंने पहले ही निवेदन कर दिया था कि
आप इसको समझ नहीं सकोगे ! अभेद है‒जीव-ब्रह्मकी
एकता । अभिन्नता जीव-ब्रह्मकी एकतासे आगे है । अद्वैत सिद्धान्तमें
जीव-ब्रह्मकी एकता बतायी है, पर जीवपना
न रहकर केवल परमात्मा ही रहे‒यह नहीं बताया है । जीवपना सर्वथा मिट जाय,
केवल परमात्मा ही रह जायँ‒यह अभिन्नता है । इस
अभिन्नताको गीताने ‘वासुदेवः
सर्वम्’ कहा है ।
अभेदमें सूक्ष्म अहम् रहता है, पर अभिन्नतामें अहम्
सर्वथा नहीं रहता । अभेदमें रहनेवाला सूक्ष्म अहम् मुक्तिमें बाधक नहीं होता अर्थात्
जन्म-मरण देनेवाला नहीं होता, प्रत्युत
मतभेद करनेवाला होता है । सूक्ष्म अहम्के कारण ही अद्वैत,
विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत और अचित्त्वभेदाभेद‒ये पाँच मतभेद हुए हैं
। परन्तु ‘वासुदेवः सर्वम्’
में ये मतभेद रहते ही नहीं ।
अद्वैत-सिद्धान्तमें जीव और ब्रह्मको ‘एक’ नहीं
कहा है, प्रत्युत ‘अद्वैत’ कहकर द्वैतका निषेध किया है । प्रायः
लोगोंमें यह बात जँची हुई है कि ज्ञानमें अद्वैत और भक्तिमें द्वैत रहता है,
पर भक्तिमें अभिन्नता हो जाती है‒यह बात जानते
ही नहीं !
कई वर्ष पहले मैंने कहा था कि कुछ वर्ष और जी गया तो परमात्मप्राप्तिकी
बात और सुगमतासे बता दूँगा । वे बातें अब बता रहा हूँ ! आप कम-से-कम इतनी बात मान लो कि मैं भगवान्का हूँ । अपने माँ-बापको मान ही सकते हैं, जान सकते ही नहीं । वीर्यका बिन्दु
अपने बापको कैसे जानेगा ? ईश्वरका अंश ईश्वरको कैसे जानेगा ?
जब अपने माँ-बापको भी आप नहीं जानते, तो फिर दुनियाके माँ-बापको कैसे जानोगे ? जैसे आप मानते हो कि मैं माँका हूँ, ऐसे ही मान लो कि मैं भगवान्का हूँ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
|