।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७५, रविवार
           श्रीदुर्गाष्टमी-व्रत, श्रीरामनवमी-व्रत
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतापतन शरीरका होता है या आत्माका ?

स्वामीजीशरीरके साथ सम्बन्ध (मैं-मेरा) माननेके कारण आत्माका पतन होता है । आपका खुदका पतन होता है । आप अपनेको जो मानते हो, उसका पतन होता है । शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं माननेसे उद्धार हो जायगा ।

श्रोताबिना करणकी सहायताके भगवत्प्राप्ति कैसे होगी ? मन-बुद्धि आदि तो काममें लेने ही पड़ेंगे !

स्वामीजीकाममें लो, पर अपना मत मानो । यह सत्संग-पण्डाल अपना नहीं है, पर काममें लेते हैं । बिछौना काममें लेते हैं, पंखा काममें लेते हैं, रोशनी काममें लेते हैं, क्या हर्ज हुआ ? काममें लेना दोषी नहीं है, अपना मानना दोषी है ।

जड-चेतनके विभागमें नयी बात क्या है ? मन-बुद्धि-अहम्‌ भी मैं नहीं हूँ । ये भी मिट्टीके ढेलेकी तरह एक जातिके हैं । यह बात हरेक जगह मिलती नहीं । पुस्तकोंसे इन बातोंका बोध नहीं होगा । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशये पाँचों मैं नहीं हूँ, ऐसा आप संसारमें तो जानते हैं, पर अपने शरीरपर विचार कम करते हैं । वास्तवमें शरीरपर विचार करना चाहिये कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशसे ही बना हुआ शरीर है, और शरीर जिससे बना है, उसीसे संसार बना हुआ है । अतः शरीर और संसार एक हैं । मन, बुद्धि और अहम्‌ भी इसी जातिके हैं । मन-बुद्धि-अहम्‌ भी मैं नहीं हूँ, मेरे नहीं है और मेरे लिये नहीं हैयह बात नयी है !

मैं चाहता हूँ कि मन, बुद्धि और अहम्‌ भी पृथ्वीकी तरह जड़ हैंऐसा आपको अनुभव होना चाहिये । जैसे यह खम्भा मैं नहीं हूँ, ऐसे ही मन भी मैं नहीं हूँ, बुद्धि भी मैं नहीं हूँ, अहम्‌ भी मैं नहीं हूँऐसा अनुभव होना चाहिये । मैं तो परमात्माका अंश हूँ, इसलिये मेरी एकता केवल परमात्माके साथ है । परमात्माके सिवाय और किसीके साथ मेरी एकता नहीं है । जैसे परमात्मा चेतन हैं, ऐसे ही मैं भी चेतन हूँ । भगवान्‌का जो स्वरूप है, वही मेरा स्वरूप है । जैसे शरीरमें माँ और बाप दोनोंका अंश होता है, ऐसे मेरे स्वरूपमें परमात्मा और प्रकृति दोनोंका अंश नहीं है, प्रत्युत मैं केवल परमात्माका ही अंश हूँ ।

जड़ चीज केवल संसारकी सेवाके लिये है, हमारे कामकी नहीं है । जड-विभाग केवल संसारकी सेवाके लिये हैयह नयी बात है ! यह कर्मयोग है । ऐसा कोई आदमी हो, जो भगवान्‌को भी नहीं मानता और अपने-आप (आत्मा)-को भी नहीं मानता, केवल संसारको ही मानता है, उसका भी कल्याण हो सकता है ! कैसे ? ऐसा माने कि सांसारिक वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और संसारकी वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे । ऐसा करनेसे उसको बोध हो जायगा ।


जैसे ईश्वर चेतन है, ऐसे ही मैं भी ईश्वरका चेतन अंश हूँऐसा माननेके बाद अपने-आपको ईश्वरके अर्पण कर दें । अर्पण करनेके बाद मेरी जगह ईश्वर आ गया, मैं रहा ही नहींयह हो जाय तो पूर्णता हो जायगी ! यह आखिरी बात है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे