(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒पतन शरीरका
होता है या आत्माका ?
स्वामीजी‒शरीरके साथ सम्बन्ध (मैं-मेरा) माननेके कारण आत्माका पतन होता है । आपका खुदका
पतन होता है । आप अपनेको जो मानते हो, उसका पतन होता है । शरीरके
साथ सम्बन्ध नहीं माननेसे उद्धार हो जायगा ।
श्रोता‒बिना करणकी सहायताके भगवत्प्राप्ति कैसे होगी ? मन-बुद्धि आदि
तो काममें लेने ही पड़ेंगे
!
स्वामीजी‒काममें लो, पर अपना मत मानो ।
यह सत्संग-पण्डाल अपना नहीं है, पर काममें
लेते हैं । बिछौना काममें लेते हैं, पंखा काममें लेते हैं,
रोशनी काममें लेते हैं, क्या हर्ज हुआ ?
काममें लेना दोषी नहीं है, अपना मानना दोषी है
।
जड-चेतनके विभागमें नयी बात क्या है ? मन-बुद्धि-अहम् भी मैं नहीं हूँ
। ये भी मिट्टीके ढेलेकी तरह एक जातिके हैं । यह बात हरेक जगह मिलती नहीं । पुस्तकोंसे
इन बातोंका बोध नहीं होगा । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश‒ये पाँचों मैं
नहीं हूँ, ऐसा आप संसारमें तो जानते हैं, पर अपने शरीरपर विचार
कम करते हैं । वास्तवमें शरीरपर विचार करना चाहिये कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशसे ही बना
हुआ शरीर है, और शरीर जिससे बना है, उसीसे
संसार बना हुआ है । अतः शरीर और संसार एक हैं । मन, बुद्धि और
अहम् भी इसी जातिके हैं । मन-बुद्धि-अहम् भी मैं नहीं
हूँ, मेरे नहीं है और मेरे लिये नहीं है‒यह बात नयी है !
मैं चाहता हूँ कि मन, बुद्धि और अहम् भी पृथ्वीकी तरह जड़ हैं‒ऐसा आपको अनुभव होना चाहिये । जैसे यह खम्भा मैं नहीं हूँ, ऐसे ही मन भी मैं
नहीं हूँ, बुद्धि भी मैं नहीं हूँ, अहम् भी मैं नहीं हूँ‒ऐसा
अनुभव होना चाहिये । मैं तो परमात्माका अंश हूँ, इसलिये मेरी एकता केवल परमात्माके
साथ है । परमात्माके सिवाय और किसीके साथ मेरी एकता नहीं है । जैसे परमात्मा चेतन हैं,
ऐसे ही मैं भी चेतन हूँ । भगवान्का जो स्वरूप है, वही मेरा स्वरूप है । जैसे शरीरमें माँ और बाप दोनोंका अंश होता है,
ऐसे मेरे स्वरूपमें परमात्मा और प्रकृति दोनोंका अंश नहीं है,
प्रत्युत मैं केवल परमात्माका ही अंश हूँ ।
जड़ चीज केवल संसारकी सेवाके लिये है, हमारे कामकी नहीं है
। जड-विभाग केवल संसारकी सेवाके लिये है‒यह नयी बात है !
यह कर्मयोग है । ऐसा कोई आदमी हो,
जो भगवान्को भी नहीं मानता और अपने-आप
(आत्मा)-को भी नहीं मानता, केवल संसारको ही मानता है, उसका भी कल्याण हो सकता है
! कैसे ? ऐसा माने कि सांसारिक वस्तुएँ
मेरी नहीं हैं और संसारकी वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे । ऐसा करनेसे उसको बोध
हो जायगा ।
जैसे ईश्वर चेतन है, ऐसे ही मैं भी ईश्वरका चेतन अंश हूँ‒ऐसा माननेके बाद अपने-आपको ईश्वरके अर्पण कर दें । अर्पण करनेके बाद मेरी जगह ईश्वर आ गया, मैं रहा ही नहीं‒यह हो जाय
तो पूर्णता हो जायगी ! यह आखिरी बात है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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