Mar
03
(गत ब्लॉगसे आगेका)
आज मैं एक विशेष, मार्मिक बात कहता हूँ । हम परमात्माके
अंश हैं और स्थूल-सूक्ष्म-कारणशरीर प्रकृतिका
अंश है । ये दो बातें आप ठीक तरहसे अलग-अलग समझ लें । यह बात
पहले भी कही थी, पर अब आप विशेष ध्यान दें ।
भगवान्ने पृथ्वी, जल, तेज,
वायु आकाश, मन, बुद्धि तथा
अहंकार‒इन आठोंको अपनी अपरा प्रकृति (इतीयं मे) बताया है (गीता ७ । ४) । ऐसे ही जीवको अपनी परा प्रकृति
(मे पराम्) बताया है,
जिसने जगत्को धारण कर रखा है (गीता ७ । ५) । जगत् न परमात्माकी दृष्टिमें है,
न महात्माकी दृष्टिमें है । इस जीवने ही जगत्को
धारण किया है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ । जगत्को धारण करनेका तात्पर्य है कि इसने अपरा प्रकृतिके
‘मन, बुद्धि और अहंकार’ को धारण कर लिया अर्थात् पकड़ लिया है
। पृथ्वीसे सूक्ष्म जल है, जलसे सूक्ष्म तेज है, तेजसे सूक्ष्म वायु है, वायुसे सूक्ष्म आकाश है,
आकाशसे सूक्ष्म मन है, मनसे सूक्ष्म बुद्धि है
और बुद्धिसे सूक्ष्म अहंकार है । सूक्ष्म होनेपर भी जो पृथ्वीकी जाति है, वही जाति मन, बुद्धि और अहंकारकी है । जब पृथ्वीको ‘मैं और मेरी’ नहीं कहते तो फिर मन, बुद्धि और अहम्को भी ‘मैं
और मेरा’ मत कहो । यह बहुत मार्मिक बात है ! आप पृथ्वी,
जल, तेज, वायु और आकाशको
तो अपना नहीं कहते, पर मन-बुद्धि-अहम्को अपना कहते हैं । यह गलती है । इन सबको भगवान्ने अपना कहा है । ये
आठों अपरा हैं, आप परा हो । अपरा निकृष्ट है । इस अपराको पकड़
लिया‒यही बन्धन है । मन, बुद्धि और अहम्
मेरे नहीं हैं । यह अपरा प्रकृति है । आपकी एकता परमात्माके साथ है । भगवान्ने जीवको
अपना अंश कहा है‒‘ममैवाशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । मन-बुद्धि-अहम्को भगवान्ने अपना अंश नहीं कहा है । अतः अहम् अपने साथ नहीं है ।
जैसे पृथ्वी, जल आदि अपना स्वरूप नहीं है, ऐसे ही मन, बुद्धि और अहंकार भी अपना स्वरूप नहीं है
। यह खास बात है । अगर इसको भीतरसे स्वीकार कर लो तो शान्तिकी प्राप्ति हो जायगी ।
अहम् दो तरहका होता है‒ १) धातुरूप अहंकार
। जैसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश धातु हैं, ऐसे मन, बुद्धि और अहम् भी एक धातु है । २) ग्रन्थिरूप अहंकार
अर्थात् ‘मैं हूँ’ । यह खास बन्धन है । धातुरूप अहम् और चेतन (परमात्माका अंश)‒दोनों मिलकर यह अहम् है । यह अहम्
आपका नहीं है । अहम् ‘मैं’ भी नहीं है और ‘मेरा’ भी नहीं है, इसलिये भगवान्ने कहा है‒‘निर्ममो
निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता
२ । ७१) अर्थात् जो निर्मम और निरहंकार होता है,
वह शान्तिको प्राप्त होता है ।
ग्रन्थिरूप अहंकार जन्म-मरणका हेतु है । ज्ञान
होनेपर जड-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंकार तो मिट जाता है, पर प्रकृतिका धातुरूप अहंकार नहीं मिटता । धातुरूप अहंकारसे उसके द्वारा व्यवहार
होता ।
जैसे मिट्टीका ढेला मैं नहीं हूँ, ऐसे ही
मन भी मैं नहीं हूँ, बुद्धि भी मैं नहीं हूँ, अहम् भी मैं नहीं हूँ । यह अपरा प्रकृति है और मैं परमात्माकी परा प्रकृति
हूँ । मैं भगवान्का अंश हूँ । पृथ्वी, जल, तेज,
वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भगवान्के अंश नहीं हैं । अतः इनके साथ मेरा सम्बन्ध नहीं
है । मनको अपना समझनेसे मन स्थिर नहीं होता । मनको अपना नहीं
मानेंगे तो मन अपने-आप स्थिर
हो जायगा, बुद्धि अपने-आप स्थिर हो जायगी
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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