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03
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७४, शनिवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

आज मैं एक विशेष, मार्मिक बात कहता हूँ । हम परमात्माके अंश हैं और स्थूल-सूक्ष्म-कारणशरीर प्रकृतिका अंश है । ये दो बातें आप ठीक तरहसे अलग-अलग समझ लें । यह बात पहले भी कही थी, पर अब आप विशेष ध्यान दें ।

भगवान्‌ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकारइन आठोंको अपनी अपरा प्रकृति (इतीयं मे) बताया है (गीता ७ । ४) । ऐसे ही जीवको अपनी परा प्रकृति (मे पराम्) बताया है, जिसने जगत्को धारण कर रखा है (गीता ७ । ५) । जगत् न परमात्माकी दृष्टिमें है, न महात्माकी दृष्टिमें है । इस जीवने ही जगत्को धारण किया है‘ययेदं धार्यते जगत्’ । जगत्को धारण करनेका तात्पर्य है कि इसने अपरा प्रकृतिके ‘मन, बुद्धि और अहंकार’ को धारण कर लिया अर्थात् पकड़ लिया है । पृथ्वीसे सूक्ष्म जल है, जलसे सूक्ष्म तेज है, तेजसे सूक्ष्म वायु है, वायुसे सूक्ष्म आकाश है, आकाशसे सूक्ष्म मन है, मनसे सूक्ष्म बुद्धि है और बुद्धिसे सूक्ष्म अहंकार है । सूक्ष्म होनेपर भी जो पृथ्वीकी जाति है, वही जाति मन, बुद्धि और अहंकारकी है । जब पृथ्वीको ‘मैं और मेरी’ नहीं कहते तो फिर मन, बुद्धि और अहम्को भी ‘मैं और मेरा’ मत कहो । यह बहुत मार्मिक बात है ! आप पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशको तो अपना नहीं कहते, पर मन-बुद्धि-अहम्‌को अपना कहते हैं । यह गलती है । इन सबको भगवान्‌ने अपना कहा है । ये आठों अपरा हैं, आप परा हो । अपरा निकृष्ट है । इस अपराको पकड़ लियायही बन्धन है । मन, बुद्धि और अहम्‌ मेरे नहीं हैं । यह अपरा प्रकृति है । आपकी एकता परमात्माके साथ है । भगवान्‌ने जीवको अपना अंश कहा है‘ममैवाशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) मन-बुद्धि-अहम्को भगवान्‌ने अपना अंश नहीं कहा है । अतः अहम्‌ अपने साथ नहीं है ।

जैसे पृथ्वी, जल आदि अपना स्वरूप नहीं है, ऐसे ही मन, बुद्धि और अहंकार भी अपना स्वरूप नहीं है । यह खास बात है । अगर इसको भीतरसे स्वीकार कर लो तो शान्तिकी प्राप्ति हो जायगी । अहम्‌ दो तरहका होता है) धातुरूप अहंकार । जैसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश धातु हैं, ऐसे मन, बुद्धि और अहम्‌ भी एक धातु है । २) ग्रन्थिरूप अहंकार अर्थात् ‘मैं हूँ’ । यह खास बन्धन है । धातुरूप अहम्‌ और चेतन (परमात्माका अंश)‒दोनों मिलकर यह अहम्‌ है । यह अहम्‌ आपका नहीं है । अहम्‌ ‘मैं’ भी नहीं है और ‘मेरा’ भी नहीं है, इसलिये भगवान्‌ने कहा है‘निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) अर्थात् जो निर्मम और निरहंकार होता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है ।

ग्रन्थिरूप अहंकार जन्म-मरणका हेतु है । ज्ञान होनेपर जड-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंकार तो मिट जाता है, पर प्रकृतिका धातुरूप अहंकार नहीं मिटता । धातुरूप अहंकारसे उसके द्वारा व्यवहार होता ।


जैसे मिट्टीका ढेला मैं नहीं हूँ, ऐसे ही मन भी मैं नहीं हूँ, बुद्धि भी मैं नहीं हूँ, अहम्‌ भी मैं नहीं हूँ । यह अपरा प्रकृति है और मैं परमात्माकी परा प्रकृति हूँ । मैं भगवान्‌का अंश हूँ । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भगवान्‌के अंश नहीं हैं । अतः इनके साथ मेरा सम्बन्ध नहीं है । मनको अपना समझनेसे मन स्थिर नहीं होता । मनको अपना नहीं मानेंगे तो मन अपने-आप स्थिर हो जायगा, बुद्धि अपने-आप स्थिर हो जायगी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे