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(गत ब्लॉगसे आगेका)
शान्ति त्यागसे मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । मुश्किल यह हो गयी कि सभी शान्ति चाहते हैं, पर त्याग
करना नहीं चाहते ! पुण्यका फल (सुख)
चाहते हैं, पर पुण्य करना नहीं चाहते !
पापका फल (दुःख) नहीं चाहते,
पर पाप करते हैं‒
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं
नेच्छन्ति मानवाः ।
न पापफलमिच्छन्ति
पापं कुर्वन्ति
यत्नतः ॥
शान्ति चाहते हो तो मैं-मेरेका त्याग करो ।
भगवान्ने अपरा प्रकृतिको अपना बताया है । जैसे पृथ्वी, जल,
तेज, वायु और आकाशपर अपना अधिकार नहीं है,
ऐसे ही मन, बुद्धि और अहंकारपर भी अपना अधिकार
नहीं है । मन, बुद्धि और अहंकार भी अपने नहीं हैं । ये सब भगवान्के
हैं । भगवान्की चीज भगवान्को सौंप दें तो स्वतः शान्ति प्राप्त हो जायगी ।
अहंकार दो तरहका होता है‒प्रकृतिका धातुरूप अहंकार
और जड-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंकार । धातुरूप अहंकार तो परमात्माका
है । परन्तु जड़ और चेतनकी एकता माननेसे जो अहंकार होता है, वह
अपना माना हुआ है । उस अहंकारमें जड़-अंश प्रकृतिका मिला हुआ है
और चेतन-अंश अपना मिला हुआ है । प्रकृतिके अंशको प्रकृतिका मानें
और उसमें अपनापन छोड़ दें । फिर स्वतः-स्वाभाविक शान्ति प्राप्त हो जायगी । उसमें अपनापन
करना ही बन्धन है ।
सब संसार ईश्वररचित है । उसमें अपनापन छोड़ दो तो सब ठीक
हो जायगा । उसमें अपनापन रहेगा नहीं, रहनेवाला है ही नहीं । अपनापन छोड़ दो
तो निहाल हो जाओगे, और रखोगे तो दुःख पाओगे । जिस संसारमें हम रहते हैं, उसमें अपनी चीज कोई नहीं है । अपने केवल भगवान्
हैं । जो चीज अपनी नहीं है, उसका सदुपयोग करनेकी हमपर जिम्मेवारी
है ।
आप कम जाननेवाले हैं, मैं ज्यादा जाननेवाला हूँ‒इस भावसे मैं नहीं कह रहा हूँ । मैंने बहुत दिनोंतक व्याख्यान दिया,
अब भाई-बहन साधनमें लग जायँ परमात्मप्राप्तिमे
तत्परतासे लग जायँ‒इस भावसे कह रहा हूँ । आप सबसे प्रार्थना है कि सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ । ‘हे
नाथ ! हे नाथ !’‒यह प्रार्थना मेरेको अच्छी लगती है ! यह प्रार्थना बड़ी लाभदायक है । चलते-फिरते, उठते-बैठते ‘हे नाथ ! मैं आपको
भूलूँ नहीं’‒यह प्रार्थना करो । प्रभुसे माँगना है तो यही माँगो
कि किसी भी अवस्थामें आपको भूलूँ नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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