।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
    वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७५, शनिवार  
                   श्रीरामानुजाचार्य-जयन्ती
                     अनन्तकी ओर     



सन्त-महात्माओंको किसीपर क्रोध भी आ जाय तो भी उनके द्वारा केवल हित ही होता है । दीखनेमें क्रिया अलग-अलग दीखती है, पर भीतरका भाव एक ही होता है । जैसे, माँ बालकको प्यार भी करती है और कभी-कभी थप्पड भी लगा देती है । बाहरसे क्रिया तो दो दीखती है, पर माँका हृदय दो नहीं होता, एक ही रहता है । माँकी जो हितैषिता प्यारमें है, उससे कम हितैषिता मारमें नहीं है । उल्टे मारमें ज्यादा हितैषिता, ज्यादा अपनापन होता है । इसी तरह सन्त-महात्माओंमें जो कड़ापन होता है, उसमें ज्यादा हित भरा होता है । यद्यपि स्वभावमें न होनेके कारण उनको कड़ाई करनेपर, शासन करनेपर जोर आता है, तथापि दूसरेके हितके लिये उनको कड़ाई करनी पड़ती है । कड़ाई करके वे प्रसन्न, राजी नहीं होते । नारियलके समान बाहरसे कठोर दीखनेपर भी उनके भीतर रस भरा रहता है !

गीर्भिर्गुरूणां परुषाक्षराभिस्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम् ।
अलब्धशाणोत्कषणान्नृपाणां न जातु मौलौ मणयो वसन्ति ॥
                                                        (रसगंगाधर)

जब मनुष्य गुरुजनोंकी कठोर शब्दोंसे युक्त वाणीद्वारा अपमानित किये जाते हैं, तभी वे महत्त्वको प्राप्त होते हैं, अन्यथा नहीं । जैसे, मणि भी जबतक शाणपर घिसकर उज्जवल नहीं की जाती, तबतक वह राजाओंके मुकुटमें नहीं जड़ी जाती ।’

भगवान् और उनके भक्तोंके द्वारा मात्र संसारका हित-ही-हित होता है । उनके द्वारा हितकी वर्षा होती है ! इस बातको अगर मनुष्य जान जाय तो वह उनका भक्त हो जाय, उनके चरणोंमें लोटने लगे ।

उमा  राम  सुभाउ  जेहि  जाना ।
ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
                                    (मानस, सुन्दर ३४ । २)


जैसे अपनी शक्तिसे हम भगवान्‌को जान नहीं सकते, ऐसे ही सन्तोंको भी जान नहीं सकते । उनके पासमें रहते हुए भी नहीं जान सकते ! उनको जाननेमें अपनी बुद्धिमानी काम नहीं करती, प्रत्युत उनकी कृपा काम करती है‒सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस, अयोध्या१२७ । २) । भगवान् और उनके भक्तोंके चरित्रको उनकी कृपाके बिना समझ नहीं सकते । इसलिये भगवान्‌को और उनके भक्तोंको पहचाननेवाले कम होते हैं । उनको पहचाननेमें भगवत्कृपाके पात्र भक्त ही चतुर होते हैं । जैसे कपूरकी सुगन्ध जानकार अथवा अनजान‒दोनोंको आती है । जानकार जान लेता है कि यह कपूरकी सुगन्ध है, अनजान नहीं जानता । जैसे पीनसके रोगीको सुगन्ध मालूम नहीं होती, फिर भी वह उसके रोगका नाश करती है । ऐसे ही सन्तोंको जानें अथवा न जानें, उनके द्वारा दुनियामात्रका भला होता है ।