।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ चतुर्थी, वि.सं.-२०७५, शनिवार
 अनन्तकी ओर     



अगर आप परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं तो मेरी बात मान लो । मेरी बात यह है कि अगर चिन्मयताकी प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका मोह अर्थात् जो उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, जिनका आरम्भ और अन्त होता है, ऐसी चीजोंका मोह छोड़ना पड़ेगा.....पड़ेगा..... पड़ेगा ! यह पक्‍की बात है !

जो उत्पन्न और नष्ट होती हैं, जिनका आरम्भ और समाप्ति होती है, ऐसी चीजें अपने कामकी नहीं हैं । शरीर, परिवार, रुपये आदि सब जरूर छूटेंगे, यह एकदम निश्‍चित बात है । उनका मोह आपको पहले छोड़ना पड़ेगा । छोड़ोगे तो कल्याण होगा, नहीं छोड़ोगे तो जन्म-मरण होगा । नामजप करोगे, कीर्तन करोगे, गीता-रामायणका पाठ करोगे तो लाभ जरूर होगा ही, यह नियम है; परन्तु कल्याण होगा जड़ताका त्याग करनेसे । भजन, सत्संग, गीता-रामायणका पाठ निरर्थक नहीं जायगा, लाभ जरूर होगा, पर कल्याण हो जायगा‒इसका पता नहीं है ! भगवान्‌की कृपासे भी भगवान्‌की प्राप्ति हो सकती है; परन्तु अगर आप अपनी तरफसे भगवान्‌की प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका त्याग करना पड़ेगा ।

थोड़ी-थोड़ी देरमें भगवान्‌से प्रार्थना करो कि हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । अगर भूल जायँ तो दुःख होना चाहिये । अगर दस-पन्द्रह मिनट बीत गये और भगवान्‌को याद नहीं किया तो एक समय भोजन मत करो । घण्टा बीत जाय और भगवान्‌को याद नहीं किया तो दिनभरका उपवास करो । इसमें पक्‍के रहो तो लाभ हुए बिना रहेगा नहीं । जरूर उन्नति होगी, इसमें सन्देह नहीं है । यह दूसरा उपाय है ।

मैंने खूब विचार किया है और देखा है कि केवल सुखकी आसक्तिसे पतन हो रहा है ! सुखका भोगी दुःख पाये बिना रह सकता ही नहीं । उसके पास दुःख आयेगा ही, चाहे आज आये या देरीसे आये । सुख चाहनेसे सुख मिलेगा नहीं और दुःख न चाहनेसे दुःख मिटेगा नहीं‒ये दो बातें याद कर लो । अगर सुख चाहनेसे सुख मिल जाय और दुःख न चाहनेसे दुःख मिट जाय तो सब दुनिया सुखी हो जाती । परन्तु यह कभी होनेका है ही नहीं !

सुखकी इच्छा छोड़नेपर दुःख आता ही नहीं‒इसको सब भाई-बहन याद कर लें । सुख चाहनेवालेको दुःख भोगना ही पड़ता है । इसलिये दुःख आनेपर सुखकी चाहना मिटाओ तो दुःख टिकेगा ही नहीं । ये बातें सत्संग करनेसे ही समझमें आती हैं । सुख आनेसे दुःख दबता है, मिटता नहीं । दबा हुआ दुःख जोरसे प्रकट होता है !

जीना चाहते हैं, इसलिये मरनेका दुःख होता है । जीनेकी इच्छा मिटा दो तो मरनेका दुःख होगा ही नहीं । जीना चाहनेसे जीना होता नहीं । अगर चाहनेसे जीना हो जाय तो कोई मरेगा ही नहीं ! इसी तरह सम्मानकी चाहना मिटाओ तो अपमानका दुःख नहीं होगा ।


सन्तोंकी पहचान तीन जगह होती है‒भिक्षामें, आदरमें और निरादरमें । एक कुत्ता भी आदर करनेसे राजी हो जाता है और निरादर करनेसे नाराज हो जाता है । जब आदर-निरादरमें राजी-नाराज होना मनुष्यपना भी नहीं है, तो फिर साधुपना कैसे होगा ? आदरमें राजी और निरादरमें नाराज हो जाय तो इसमें साधुकी फजीती है, इज्जत नहीं है ! वह साधु नहीं, स्वादु है । साधु स्वादु नहीं होता और स्वादु साधु नहीं होता । योगी भोगी नहीं होता और भोगी योगी नहीं होता ।