।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ एकादशी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
              श्रीपुरुषोत्तमी एकादशी-व्रत (सबका)
 अनन्तकी ओर     



व्यक्तिकी महिमा करना मैं अनुचित समझता हूँ । मैं इसके लायक नहीं हूँ । मेरेको शर्म आती है ! मैं एक पारमार्थिक बातमें चलनेकी चेष्टा कर रहा हूँ; तात्त्विक बातें मेरेको अच्छी लगती हैं; इस मार्गमें आगे बढ़ना चाहता हूँ‒यह बात तो सच्‍ची है; परन्तु मैं महिमाके लायक नहीं हूँ । इस मार्गकी रुचि मेरे मनमें है, पर वह भी जैसी होनी चाहिये, वैसी नहीं है । मैं देखता हूँ, विचार करता हूँ तो मेरेमें बहुत-सी कमी है । कमी मैं रखना नहीं चाहता हूँ, पर अपनी शक्तिसे दूर नहीं कर सकता हूँ । भगवत्कृपासे कमी दूर होती है‒यह मेरा विश्‍वास है । इस विश्‍वाससे मेरेको लाभ होता है, और आपसे भी विश्‍वास रखनेको कहता हूँ । जैसे, वर्षा होती है तो मैंने उसे समुद्रपर भी बरसते देखा है, काँटेवाले और विषैले वृक्षोंपर भी बरसते देखा है । भगवान्‌की कृपा भी सम्पूर्ण जीवोंपर ऐसे ही बरसती है । वह पात्र-अपात्र नहीं देखती । उस कृपासे असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है ।

मैं सबसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि ऐसी (मेरी प्रशंसाकी) बात मेरेको न सुनायें । मेरेको अच्छी नहीं लगती ।

परमात्माकी प्राप्ति सुगम है, पर केवल परमात्माकी चाहना हो तब । दूसरी चाहना रहनेपर परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि परमात्माके समान कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अद्वितीय हैं, ऐसे ही परमात्माकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये । केवल इच्छासे परमात्मा ही मिलते हैं, और कोई चीज नहीं मिलती । कारण कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है । संसारमें बिना उद्योगके, बिना प्रारब्धके कोई वस्तु नहीं मिलती । सांसारिक धन आदि चाहते हैं तो उसमें घाटा भी पड़ जाता है, पर परमात्माकी प्राप्तिमें घाटा कभी पड़ता ही नहीं । परमात्मा सब जगह हैं, पर रुपया सब जगह नहीं है । सूईकी तीखी नोक-जितनी जगह भी भगवान्‌से खाली नहीं है । कर्मोंसे अथवा प्रारब्धसे नाशवान् चीज मिलती है, पर परमात्मा प्रारब्धसे अथवा कर्मोंसे नहीं मिलते । परमात्मा केवल इच्छामात्रसे मिलते हैं । उनकी प्राप्तिमें पढ़ाई-लिखाईकी, बुद्धिमानीकी आवश्यकता नहीं है । केवल उनके सिवाय कोई भी चाहना न हो, न जीनेकी, न मरनेकी, न भोगोंकी, न संग्रहकी । एक परमात्माकी प्राप्तिकी चाहना हो तो वे जरूर मिलते हैं, एकदम सच्‍ची बात है !


परमात्मा सबके हृदयमें रहते हैं‒‘सर्वस्व चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) वे आपसे दूर नहीं हैं । आप नरकोंमें जाओगे तो भी आपके हृदयमें भगवान् रहेंगे । चौरासी लाख योनियोंमें जाओगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । आप पशु-पक्षी बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । वृक्ष बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । देवता बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । जो सबके हृदयमें रहता है, उसकी प्राप्ति दुर्लभ कैसे ? परन्तु दूसरी इच्छाएँ रहते हुए वे नहीं मिलते ।