व्यक्तिकी महिमा करना मैं अनुचित समझता हूँ । मैं इसके लायक
नहीं हूँ । मेरेको शर्म आती है ! मैं एक पारमार्थिक बातमें चलनेकी चेष्टा कर रहा हूँ;
तात्त्विक बातें मेरेको अच्छी लगती हैं;
इस मार्गमें आगे बढ़ना चाहता हूँ‒यह बात तो सच्ची है;
परन्तु मैं महिमाके लायक नहीं हूँ । इस मार्गकी रुचि मेरे मनमें
है, पर वह भी जैसी होनी चाहिये, वैसी नहीं है । मैं देखता हूँ, विचार करता हूँ तो मेरेमें बहुत-सी
कमी है । कमी मैं रखना नहीं चाहता हूँ, पर अपनी शक्तिसे दूर नहीं कर सकता हूँ । भगवत्कृपासे
कमी दूर होती है‒यह मेरा विश्वास है । इस विश्वाससे मेरेको लाभ होता है,
और आपसे भी विश्वास रखनेको कहता हूँ । जैसे,
वर्षा होती है तो मैंने उसे समुद्रपर भी बरसते देखा है,
काँटेवाले और विषैले वृक्षोंपर भी बरसते देखा है । भगवान्की
कृपा भी सम्पूर्ण जीवोंपर ऐसे ही बरसती है । वह पात्र-अपात्र नहीं देखती । उस कृपासे
असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है ।
मैं सबसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि ऐसी (मेरी प्रशंसाकी) बात
मेरेको न सुनायें । मेरेको अच्छी नहीं लगती ।
परमात्माकी प्राप्ति सुगम है,
पर केवल परमात्माकी चाहना हो तब । दूसरी चाहना रहनेपर परमात्माकी
प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि परमात्माके समान कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अद्वितीय
हैं, ऐसे ही परमात्माकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये । केवल इच्छासे परमात्मा ही मिलते
हैं, और कोई चीज नहीं मिलती । कारण कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला
है । संसारमें बिना उद्योगके, बिना प्रारब्धके कोई वस्तु नहीं मिलती । सांसारिक धन आदि चाहते
हैं तो उसमें घाटा भी पड़ जाता है, पर परमात्माकी प्राप्तिमें घाटा कभी पड़ता ही नहीं । परमात्मा
सब जगह हैं, पर रुपया सब जगह नहीं है । सूईकी तीखी नोक-जितनी जगह भी भगवान्से
खाली नहीं है । कर्मोंसे अथवा प्रारब्धसे नाशवान् चीज मिलती है,
पर परमात्मा प्रारब्धसे अथवा कर्मोंसे नहीं मिलते । परमात्मा केवल इच्छामात्रसे मिलते हैं । उनकी प्राप्तिमें पढ़ाई-लिखाईकी, बुद्धिमानीकी
आवश्यकता नहीं है । केवल उनके सिवाय कोई भी चाहना न हो, न जीनेकी, न मरनेकी, न भोगोंकी, न संग्रहकी
। एक परमात्माकी प्राप्तिकी चाहना
हो तो वे जरूर मिलते हैं, एकदम सच्ची बात है !
परमात्मा सबके हृदयमें रहते हैं‒‘सर्वस्व
चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५
। १५)
। वे आपसे दूर नहीं हैं । आप नरकोंमें जाओगे तो भी आपके हृदयमें भगवान् रहेंगे ।
चौरासी लाख योनियोंमें जाओगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । आप पशु-पक्षी बनोगे
तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । वृक्ष बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे
। देवता बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । तत्त्वज्ञ,
जीवन्मुक्त बनोगे तो भी भगवान् आपके हृदयमें रहेंगे । जो सबके
हृदयमें रहता है, उसकी प्राप्ति दुर्लभ कैसे
? परन्तु दूसरी इच्छाएँ रहते
हुए वे नहीं मिलते ।
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