।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ दशमी, वि.सं.-२०७५, गुरुवार
           श्रीगंगा-दशहरा, एकादशी-व्रत कल है
 अनन्तकी ओर     



चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय भगवान्‌को पुकारना शुरू कर दो कि ‘हे नाथ ! हे प्रभो ! हे स्वामिन् ! इस आफतसे छुड़ाओ ! हमारेसे छूटता नहीं’ ! पहले नकली पुकार होती है, फिर वह नकलीसे असली हो जाती है । कभी हृदयसे पुकार निकलेगी तो माया छूट जायगी । हृदयकी उस असली पुकारके लिये ही यह सत्संग है ।

अगर आदमी बनावटी भी साधु हो जाय तो कितनी आफत छूट जाय, फिर असली साधु हो जाय तो आनन्दका क्या कहना ! आनन्दका पार नहीं है ! जिन सन्तोंका संग करनेसे सुख होता है, जिनकी बात सुननेसे सुख होता है, अगर वैसा खुद बन जाय तो कितना सुख है !

सिद्धान्तकी बात है कि अगर वृत्ति शुद्ध रखना चाहते हो तो कंचन और कामिनी‒इन दोकी महत्ताका त्याग करो । हृदयमें इनकी दासता नहीं होनी चाहिये । गृहस्थ-आश्रममें पैसा रखनेका निषेध नहीं है, पर पैसेका महत्त्व नहीं होना चाहिये । आपके पास लाखों-करोड़ों रुपये हों तो कोई हर्ज नहीं है, पर रुपयोंकी दासता नहीं होनी चाहिये ।

अगर रुपयोंका त्याग करनेसे साधुकी प्रशंसा होती है तो यह महत्त्व रुपयोंका है, साधुका नहीं । अगर रुपयोंके त्यागसे साधु बड़ा हुआ तो वास्तवमें रुपया बड़ा हुआ, त्याग बड़ा नहीं हुआ ।

जिसके भीतर भोग और संग्रह‒इन दोकी इच्छा होती है, उसे सुख नहीं मिल सकता । सुख त्यागमें है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) ।

आप चाहे गृहस्थ हों या साधु हों, एक भगवान्‌को अपना मान लो तो आप श्रेष्ठ बन जाओगे । मीराबाईने भगवान्‌को अपना मान लिया था‒मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ मीराबाईका न तो कोई बेटा हुआ, न कोई चेला हुआ, पर सन्तलोग भी बड़े आदरसे उनका नाम लेते हैं !

नाम  नाम बिनु  ना रहे, सुनो  सयाने लोय ।
 मीरा सुत जायो नहीं, शिष्य न मुंड्यो कोय ॥


अभी मेरे विषयमें जो कुछ कहा गया, वह ठीक नहीं है । मैं नतमस्तक होकर कहता हूँ कि ऐसे (महिमाके) वचन मेरेको अच्छे नहीं लगते । वास्तवमें मेरी धृष्‍टता है कि मैं सुन रहा हूँ ! आप सब लोग क्षमा करेंगे । मेरा विचार है कि जहाँतक हो, व्यक्तिकी महिमा कहना अच्छा नहीं है । यह जो हाड़-मांसका पुतला है, इसकी महिमा उचित नहीं है । परन्तु भगवान्‌की महिमा जितनी करें, उतनी थोड़ी है । उनकी महिमा पूरी होती ही नहीं । आजतकके सभी ग्रन्थ इकट्ठे कर लिये जायँ तो उनमें भगवान्‌की महिमा बहुत थोड़ी हुई है । उनकी महिमा पूरी नहीं हो सकती, अगर पूरी हो जाय तो वह परमात्मा ही नहीं है । परमात्मा अपार हैं, असीम हैं, अनन्त हैं ।