।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, 
                 वि.सं.-२०७५, रविवार
पुरुषोत्तमी एकादशी-व्रत (सबका) 
 अनन्तकी ओर     


मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहियेये दो बातें मान लो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।

सबसे प्रेम करो । प्रेमसे ही बोलो, प्रेमसे ही सुनो, प्रेमसे ही देखो, प्रेमसे ही सबके हितकी बात सोचो । इससे कामनाका नाश हो जायगा । ऐसा प्रेम नहीं कर सको तो भगवान्‌का आश्रय लो और (अपने लिये) कुछ मत करो । क्रिया-रहित हो जाओ । कुछ न करनेसे परमात्मतत्त्व प्राप्त हो जायगा । करनेसे प्रकृतिमें स्थिति होती है । कुछ नहीं करोगे तो परमात्मामें ही स्थिति होगी । मनसे, वाणीसे, शरीरसे कुछ करना नहीं है ।

जहाँ आप अपनेको मानते हो, परमात्मा उससे (मैं-पनसे) भी नजदीक हैं । उसकी प्राप्तिका सुगम उपाय हैकुछ मत करो । अभी थोड़ी देरके लिये भी क्रियारहित (चुप) हो जाओ तो आपको शान्ति मिलेगी । इसके लिये आपको उपाय बताता हूँ । नासिकासे चार-पाँच बार जोरसे श्‍वास बाहर निकालकर ठहर जाओ । फिर उस स्थितिमें जितनी देर ठहर सको, उतना ठहरकर धीरे-धीरे श्‍वास लेना शुरू करो । दूसरा उपाय, कुछ देरतक आँखोंकी पलकोंको बार-बार झपकाओ । इससे संकल्प-विकल्प कट जाते हैं । श्‍वास और आँखकी इन दोनों क्रियाओंको करो तो तत्काल शान्ति मिलेगी । तीसरी बात, सब जगह एक है ऐसा करके चुप हो जाओ । कुछ भी चिन्तन मत करो । सब जगह परिपूर्ण है को पकड़ लो । इसे करोगे तो बड़ा भारी लाभ होगा । बात यह है कि आप पूछ लेते हैं, सुन लेते हैं, पर करते नहीं ! इसे करके देखो । यह बहुत उत्तम, बढ़िया साधन है ! इसे करनेके लिये किसी चीजकी जरूरत नहीं । करना यह है कि कुछ मत करो । जिससे देश, काल आदिकी दूरी हो, वह क्रियासे मिलता है । जो सब जगह परिपूर्ण है, वह क्रियासे नहीं मिलता । जो है, वही मेरा है ।

इस साधनको करनेके लिये किसी दूसरे (गुरु)-की आवश्यकता नहीं है । इससे सुगम साधन बतानेवाला कोई मिलेगा नहीं ! गुरुके नामपर केवल ठगाई होती है !

कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों योगोंका सार हैअहंता-ममताका त्याग । अहंता और ममतासे रहित होनेपर ही प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है तथा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है । मैं-मेरापनका त्याग ही वास्तवमें त्याग है । अहंकार छोड़नेमें बड़ी कठिनता पड़ती है । कोई भी साधन करें तो अहंकार साथमें रहता है । मैं-पनसे प्रकृतिके साथ अभेदपूर्वक सम्बन्ध होता है, और मेरा-पनसे प्रकृतिके साथ भेदपूर्वक सम्बन्ध होता है । है में स्थित होनेसे मैं-पन और मेरा-पन दोनों मिट जाते हैं । जो है, वह परमात्मा है और जो नहीं है, वह प्रकृति व उसका कार्य हैनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः (गीता २ । १६) । जो प्रकृतिसे रहित है, उस है में बड़ी सुगमतासे स्थिति हो सकती है ।