।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी, 
                 वि.सं.-२०७५, मंगलवार
 अनन्तकी ओर     


प्रत्येक क्रिया है’-पनेसे ही आरम्भ होती है और है’-पनेमें ही लीन होती हैं‒ऐसा समझकर आप है’ में स्थित हो जाओ । फिर है’-पना नित्य रहेगा, क्रिया नित्य नहीं रहेगी । क्रियामें थकावट होती है, पर है’ में थकावट होती ही नहीं ।

बोलनेमें दो आदमी भी बराबर नहीं होते, पर नहीं बोलनेमें सब एक होते हैं । विद्वान्-से-विद्वान् हो अथवा मूर्ख-से-मूर्ख हो, न बोलनेमें उनमें क्या फर्क है ? क्रियारहित अवस्था सबकी अवस्था है । इसलिये आप सब कामोंके बिना रह सकते हो, पर नींदके बिना नहीं रह सकते; क्योंकि नींदमें ही आपको विश्राम मिलता है । नींद लेनेसे आपको काम करनेकी शक्ति मिलती है । अतः निष्क्रिय होनेसे शक्तिका संचय होता है और क्रियासे शक्ति क्षीण होती है । करनेकी, जाननेकी, समझनेकी, अनेक आविष्कारोंकी, विज्ञानकी, जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब-की-सब शक्तियाँ निष्क्रिय-तत्त्वमें हैं और उसीसे पैदा होती हैं ।

आप सब है’ में स्थित हो जायँ । परमात्मा कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, किधर देखते हैं, क्या खाते हैं, क्या पीते है‒इन बातोंको जाननेकी जरूरत नहीं है । परमात्मा है’इसके सिवाय कुछ नहीं जानना है ।

परमात्मा है’यह मानना बहुत आवश्यक है । माता-पिताको आप जान सकते ही नहीं, मान ही सकते हैं । जैसे, माँसे पैदा होते समय आपकी (शरीरकी) सत्ता तो थी, पर होश नहीं था । परन्तु पिताके समय आपकी सत्ता थी ही नहीं, आप पीछे पैदा हुए । इसी तरह ईश्‍वरके समय जगत् था ही नहीं । जगत् पीछे पैदा हुआ‒‘एकोऽहं बहुःस्याम्’, फिर वह ईश्‍वरको कैसे जाने ? ईश्‍वर संसारके परमपिता हैं‒‘अहं बीजप्रदः पिता’ (गीता १४ । ४) । जैसे माँ-बापके होनेमें हमारा शरीर प्रमाण है, ऐसे ही ईश्‍वर (है’)-के होनेमें हमारी सत्ता (जीवात्मा) प्रमाण है । इसलिये ईश्‍वर है’इतना मान लो । यह बात वेदान्तके आचार्यतकके ग्रन्थोंमें नहीं आती ! उनमें जगत्, जीव और परमात्मा‒तीनोंको जाननेकी बात आती है, जबकि परमात्मा जाननेका विषय है ही नहीं ! उनको जाननेकी शक्ति किसीमें नहीं है । भगवान् कहते हैं‒

न  मे  विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
                                                     (गीता १० । २)

मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका आदि हूँ ।’


सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस, अयोध्या १२७ । २)‒यह जानना भी वास्तवमें मानना ही है । परन्तु मानना भी जाननेसे कमजोर नहीं है, प्रत्युत तेज है ।